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मिश्रबंधु

मिश्रबंधु-विनोद सं. १९६३ 5 [महाराणा प्रताप-अप्रकाशित महाकाव्य से] विद्यावही सुभ दल गुणालंकृता श्रीविशिष्ठा , आर्य क्षोणी अवनितल प वाटिका थी गरिष्ठा। केकी कोकी अलिकुल प्रजा कूजती गूंजती थी, मानो स्नाता प्रकृति पति को प्रेम पूजती थी॥१॥ झमा झोंका यवनदल का काल के कोप से ही श्राया एवं विरहित किया कुंज को अोप से ही । संध्या से हो निशि-निशि परे व्योम में सर प्राता धीरे-धीरे पुनि दिन गए नित्य उत्सूर अाता ॥ २ ॥ स्वाधीना जो सब विधि सदा थी रही विश्व मध्य , अन्य द्वारा बिदलित हुई मेदिनी हाय अद्य ! जो लोकाधीश भुवनजमी श्राक्रमी शक-से थे दास्थालंनी परवश हुए भाग्य के चक्र से वे ॥३॥ स्वेच्छाचारी यवन - महिपों के दुराचार-पूर्ण कार्यों से हो जब हिय गया हिंदुत्रों का विचूर्ण कर्तव्यों का तव कुछ उन्होंने तज न रक्खा विवेक प्रत्यर्थी से कतिपय मिले धर्म की छोड़ टेक ॥४॥ एकाएकी बिचलित हुई राजपूती गलों से , राज्य-श्री श्री भरत भुवि की जा मिली मोगलों से। राजा थे जो बनकर प्रजा शाह का चे गुलाम भागे श्राके अति विनय से नित्य देते सलाम ॥ ५ ॥ दिल्ली का त्यों दिन फिर गया, हो गई ऋद्धिशाली, प्रासादों पै विलसित हुई ज्यों ध्वजा चाँदवाली। दिल्ली को यों विजय-रिमा नित्य आती तृपा से आती है ज्यों सरि जलधि में आप सारी दिशा से ॥ ६ ॥ --(३८६६) प्रतिपालसिंह ठाकुर, पहरा, राज्य-छतरपुर। ए 3 5 . जाम-