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मिश्रबंधु

मिश्रबंधु-विनोद सं० १९६६ . नैन कजरारे कोर वारे धनु भौंह तानि मारत निसंक बान नेकु ना डरत हैं; बेसर बिसेष वेप कीमति जड़ाऊ देखि , तारन समेत तारापति अधर कपोल दंत नासिका बखानौं कहा, केस को सुवेस लखि सेस कहरत हैं; श्रीफल कठोर चक्रवाक-से निहारे तेरे उरज अमोल गोल घायल करत हैं। यह साहित्य एक स्त्री-कवि के मुख से शोभा नहीं पाता । ऐसी रचना से प्राचीन प्रथा का अंध-प्रचार प्रकट है १ समय- -संवत् १६६६ नाम-(३६२० ) बुद्धिनाथ झा 'कैरव', संथाल परगनांतर्गत सनौर ग्राम, (बिहार-प्रांत)। रचना-काल-सं० १९६६ । अंथ-(3) आगे बढ़ो, (२) पश्चात्ताप । अप्रकाशित रच- नाएँ-(१) खादी की उपयोगिता, ( २ ) दिव्य दर्शन, (३) निहोरा, (४) ध्वनि, (५) खादी लहरी । विवरण-प्राए बिहार के एक प्रतिभाशाली नवयुवक लेखक पं० भरोसीमा के हैं। राजपुर मिडिल इँगलिश में प्रधानाध्यापक हैं। संवत् १९८३ के हिंदी साहित्य-सम्मेलन की मध्यमा परीक्षा में श्राप सर्व-प्रथम होकर उत्तीर्ण हुए। इस सफलता के उपलक्ष में स्वर्ण- पदक द्वारा श्राप भरतपुर-सम्मेलन में गौरवान्वित किए गए। श्राप गम तथा पद्य दोनो के सुलेखक हैं, और श्रापकी रचनाएँ 'माधुरी, 'चाँद' श्रादि हिंदी की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुश्रा करती हैं।