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मिश्रबंधु

३७२ मिश्रबंधु-विनोद सं० १९६७ मम वियोग के दुःलह दुख से निशि में व्याकुल रहती है। कहा जलज ने-हे मलिंद, जिमि तुमको अलिनी प्यारी है; इसी तरह से मेरी भी तो मित्र ! आपसे थारी है। अपने-अपने प्रेमी को पा सव ही हृदय लगाते हैं; जीव-हीन, जढ़ होकर भी हम 'लछमी' नेम निभाते हैं। देखे मैंने विश्व-बीच में जितने सब सुंदर उपमान ; दीख पड़ा उन सबमें तेरा सौनदर्य मुझको छविमान । राका-शशि में मिली देखने आनन की सुदरताई; ऊषा किरणों में भी लछमी, अधराओं की अरुणाई। आई हूँ जब से अवास में, यही देखती प्रणाधार, किया न होगा कभी आपने मेरे ऊपर निश्छल प्यार । निर्ममता अँझलाना देखा, सुने सदा ही वचन कठोर ; प्रेम-सिंधु में मुझे डुबाने कभी न आई प्रेम-हिलोर । ज्ञात नहीं, इस निष्ठुरता में सजा कौन-सा पाते हो हमें देखना है निर्मोही, कब तक तुम टुकराते हो। नाम-(३६२७ ) विश्वेश्वरनाथ रेउ, साहित्याचार्य, शास्त्री, एम्० आर० ए० एस् । आपका जन्म सं० १९४७ में, जोधपुर में, हुआ । अाप पं० मुकुंदमुरारिजी रेड के सुपुत्र हैं। रेउजी जाति के कश्मीरी ब्राह्मण हैं । संस्कृत-साहित्य की प्राचार्य-परीक्षा में सर्वप्रथम रहने के कारण जयपुर-राजकीय विद्या-विभाग से आप एक पदक द्वारा गौरवान्वित किए गए । जोधपुर-ऐतिहासिक विभाग में आपने प्रशंसनीय कार्य किया, और वहीं रहते हुए डिंगल-भाषा की कविता एकत्रित करने में बंगाल-एशियाटिक सोसायटी को सहायता दी । जोधपुर-राज्य में यह अजायबघर, पुस्तकालय, ज्योतिष-कार्यालय, पुरातत्त्वानुसंधान आदि कई संस्थानों के सफलता पूर्वक अध्यक्ष रह चुके हैं । इन्हें . .