पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ४.pdf/५०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५०६
५०६
मिश्रबंधु

सं० १९७६ उत्तर नूतन 1 7 विवरण-श्राप छीवास्तव कायस्थ मुंशी शिवनारायण लालजी के पुन्न हैं। प्रारंभ में श्रापकी कृतियाँ उर्दू-मापा में ही हुआ करती यौं । पश्चात् हिंदी-भापा से इन्हें प्रेम हुआ, और अब इसी भाषा में श्राप रचनाएँ लिया करते हैं। इनकी हिंदी तथा उर्दू' की कवि- ताएँ, 'जमाना', 'अदीव', 'प्रभा', 'मर्यादा' आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं । श्राप सुकवि हैं। उदाहरण न तुझ विन हो सकता उत्थान अमित तेरी महिमा, बलिदान ! निपट यह मन जब हुआ निराश, नई उत्पन्न हुई फिर पाश परिस्थिति का करके द्रुतनाश, प्रकृति में होता सदा विकाश । इसी को तू कर रहा बखान , अमित तेरी महिमा, बलिदान ! जलाता तू उर में वह भाग कि तपकर मन बनता बेलाग उपजता क्रमशः ऐसा त्याग, अधिक बढ़ता तुझसे अनुराग । सुगम होता श्रादर्श - विधान , अमित तेरी महिमा, बलिदान ! प्रथम थे जो मनुष्य अति दीन, बँधे बंधन में स्वत्व-विहीन उन्हें दे-देकर स्फूर्ति नवीन, किया तूने सव विधि स्वाधीन । प्रकट की अपनी शक्ति महान् , अमित तेरी महिमा, बलिदान ! जहाँ तूने पाया विस्तार, हुआ बस जानो राष्ट्रोद्धार गई मिट जुल्मों की भरमार, नने फिर शुद्ध समस्त विचार । किया यों नव युग का आह्वान अमित तेरी महिमा, बलिदान ! 9 3