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मिश्रबंधु

मिश्रबंधु-विनोद सं० १९७६ था, उदाहरण वज्राघात मुकुलित कली हवा में थी काँपती अपित-सी, भौंरा वहीं खड़ा था। एक दिन कली खिलेगी, रस से भरी अनूठी, यह सोचकर अड़ा था। अषा-गमन निकट था, नभ का रंगीन पट-सा, मृदु वायु बह रही थी। व्याकुल हुआ भ्रमर था, इच्छा दबी छिपी-सी- जी में तरस रही थी। सौरभमयी पवन थी, वासित दिशा बनाती, बेखबर भ्रमर "निश्चय यही हमारी एक दिन कली खिलेगी।" यह सोच वह निडर था ! रो-रो कटेंगे निशि दिन, उत्ताप कम न होगा- प्राग होकर ! हा हत! स्वप्न में भी भौंरा न सोचता था- हम मर मिटेंगे रोकर !! देखा हृदय कड़ा कर जिस दृश्य को मधुप ने, वह रह गया तड़पकर ! बादल बिना कहाँ से उस पर अरे ! बिजलियाँ प्राकर गिरों कड़ककर !! माला बना कली को, हा ! अन्य के गले में, माली पिन्हा रे दुष्ट देव ! लखकर यह दृश्य तू न रोता, यह प्रेम रहा है! क्यों जी जला रहा है!