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मिश्रबंधु

सं० १९७६ मिनबंधु-विनोद हुई है । वैसे ही मानिक स्वच्छंद छंद की आपने उपर्युक्त वर्ण छंद के समान सृष्टि की है। इसमें बँधे हुए प्राचीन प्रथानुयायी संगीत की भी मुक्ति है । अर्थात् वह बद्ध तालों को छोड़कर इनके छंद के समान नवीन गति पर भी चलता है। उदाहरण- "जूही की कली" विजन - वन - वल्लरी पर सोती थी सुहाग-भरी-स्नेह-स्वप्न-मग्न कमल-कोमल-तनु तरुणी, जूही की कली, हग बंद किए-शिथिल-पन्नांक में। वासंती निशा थी, विरह-विधुर प्रिया-संग छोड़ किसी दूर देश में था पवन जिसे कहते हैं मलयानिल । आई याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात भाई याद कांता की कंपित कमनीय गात , श्राई याद चाँदनी की छुली हुई आधी रात , फिर क्या ?---पवन उपवन-सर-सरित-गहन-गिरि-कानन कुंज-लता-पुंजों को पार कर पहुँचा जहाँ उसने की केलि खिली-कली-साथ । सोती थी, जाने कहो, कैसे प्रिय-श्रागमन वह ? नायक ने चूमे कपोल , डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल । इस पर भी जागी नहीं, चूक क्षमा-भागी नहीं,