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मिश्रबंधु

. मिश्रबंधु-विनोद सं.१९५९ अंजन अँजीली अरसीली अखियान पेखि खंजन की, कंजन की अवली लजै लगी। मंद मुसकान सों सनेह-सुधा घोरै 'चंद्र', बोलति नवीना मंजु बीना-सी बजै लगी। खड़ी बोली (सवैया-छंद) स्वरों की सुधा-सिंचित माधुरी से रस प्राण में कौन-सा घोलती है छिपी अंतर में किस वेदना की उलझी हुई ग्रंथियाँ खोलती है। अथवा हुई प्रेम में बावली तू , प्रति डाल में सावली डोलती है। अयि प्रेयसि श्यामा, विभावरी में कह क्यों तू कुहू कुहू बोलती है ॥ १॥ मधुकांते, मनोहर तू कितनी, ये मनोहरता बता पाई कहाँ; यह मादकतामयी रागिनी है, किसने तुझको सिखलाई कहाँ। सु सुयोगिनी है या वियोगिनी तू , कहाँ थी, किस देश से श्राई कहाँ भरी कंठ में तेरे गई इतनी मधु-सी मिसिरी-सी मिठाई कहाँ ॥२॥ किस कानन में उपजी कब तू , कहाँ खेली, कहाँ है सयानी हुई। नवयौवन की अगवानी कहाँ तुझको महामोद प्रदानी हुई।