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मिश्रबंधु

मिश्रबंधु-विनोद सं. १९७३ 3 . उदाहरण स्वप्न-विषाद निबिड़ कालिमा से आच्छादित हँसता था श्राकाश; और पयोधर सिंहनाद से कहता था "शाबाश" । पवन तुरंगम उस सेनप को दिखा रहा संग्राम प्रकृति-जगत् के बीच मचा था ऐसा ही कुहराम । मेध-बिंदु के विशिख समक्ष बना हुआ था मैं ही लक्ष । मिला भयंकर घार महावन कंटक . से पाकीर्ण पथ-विहीन शत योजन तक था मानो वह विस्तीर्ण । सिंहादिक व्यालादिक हिंसक धूम रहे थे, जंतु, देख-देखकर रहा था मेरा साहस-तंतु। कैसे निकलूं इससे हाय ! कौन बतावे यहाँ उपाय। सब छूटी अाशा जीवन की चेष्टित थे सब अंग: कर पद ने आधार - खोज में कर दी निद्रा भंग । देखा वहाँ न भय था, थी बस केवल कुछ-कुछ रात :. पड़ा हुआ था मैं शय्या पर, होने को था परिवर्तित होकर श्राह्लाद कहाँ गए वे स्वप्न-विषाद ? इसी तरह जग में जीवन है करता मिथ्याशोक जब तक उसमें दीख न पड़ता सच्चा ज्ञानालोक । सहते हुए ताप इस तन में जब करता है यत्न ; तभी नीव यह पा सकता है 'ईश्वर'-ऐसा रत्न । का यह उपदेश ग्रहण करोगे क्या कुछ देश ? प्रात। स्वप्न-कथा