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मिश्रबंधु

मिश्रबंधु-विनोद सं० १९८० हटाकर पात्र सुधा से भरा गरल का जिसने प्याला पिया। हृदय में जिसके भरी अपार वेदना दलितों के प्रति, आह ! बिताना जीवन समझा श्रेय साथ लेकर जिसने गुमराह । देख दुखियों का दुःख-समुद्र तैरने को जो हुआ तयार ; छलकता रहा आयु में सदा पीड़ितों के प्रति जिसका प्यार । छोड़कर मोह प्राण को स्वयं निछावर किया विश्व के लिये झुका जो कभी किसी से नहीं. स्वत्व पर मरे, स्वत्व पर जिए । गुफा में, वन में फिरता रहे सदा भय-हीन और स्वच्छंद ; प्रकृति का सारा सुखमय साज भोग निर्लेप करे सानंद। कभी मन से मत भावे क्रोध, द्वेष से हो न कभी संयुक्त । विश्व-उन्नायक, जग-सिरमौर वही है रत्न, जगत् का 'मुक्त' । नाम-(४३२१) प्रसिद्धनारायणसिंह बी० ए० । अंथ-(१) सुनीति-गीतावली, ( २ ) सावित्री-उपाख्यान, (३) श्वास-विज्ञान, (४) हठयोग, (५) योगशास्त्रांतर्गत धर्म, ( ६ ) योगत्रयी, (७) राजयोग, (= ) योग की कुछ विभू-