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मिश्रबंधु

चारण मिश्रवधु-विनोद सं० १६८ नाम--(४३२६) मोहनसिंह ( कविराज)। जन्स-काल-सं. १९५६ । रचना-काल-सं० १९८० ग्रंथ-(१) बणिक-बहत्तरी, (२) प्रपंच-पचीसी, (३) जैसल-पचीसी, (४) रामदास-पचीसी, (१) प्रताप-रस-चंद्रो- दय, (६) कुंभेणकीर्ति-प्रकाश, (७) मोहन-सतसई, (८) महाराणा-चरितामृत, (६) मान-पचीसी, (१०) कूर्म-यश-कला- निधि, (११) व्यंग्यार्थ-प्रकाश । विवरण ---कविराव बख्तावरसिंह के प्रपौत्र हैं। अपने ननिहाल सीतमऊ (मालवा) में कविवर उज्ज्वल फ़तहकर्ण से काव्य पढ़ा। श्राप सुकवि हैं। उदाहरण- कैधौं केतु तारो है कराल कौल युस्थन को, दमकत भाना को } कैधौं जब जा के जल-वीचि की चमक चारु, कैधौं तेजबिंब है .प्रताप मरदाना को । कैधौं है अनंतजू को ऊजरो अनोखो फन, कैधौं यह चोखो पन केतकी प्रमाना को; कैधौं शूल-पाणि के त्रिशूल को दुधारा यह, कैधौं अनियारो शेल छन्त्रधर राना को । वैसि ही भांति चकोरन की गति चाहमई दरशै सुखदाई; वैसि ही भाँति पियूष की धार धरा पै दशौं दिशि दीसत धाई। वैसि ही भाँति तरंगित सागर, नागरता इतनी न लखाई : श्राजु क्यों आँगन चूह. परै, यह चैद की मो घर मंद जुन्हाई । नाम---( ४३३०) रामचंद्र शर्मा 'प्रफुल्ल' हिंदी-भूषण, साहित्योपाध्याय । किरन समूह