पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ४.pdf/५५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५५२
५५२
मिश्रबंधु

सं. १९८२ उत्तर नूतन

निखिल नदी-नद को निपुन निधान एकै घोहित के दनि बिपोहते रहत है ऐहो कुंभजात ! एतो वारिधि बढ्यो तो कहा रावरी कृपा की कोर जोहते रहत है। मगन गगन है तुम्हारी भजनावली में कोकिल कपोत कीर के समान कूजा को; बिसद बजे हैं घने घंट धनराज के ये सुनियत सानी न तिलोक मैं कहूँ जाको । गड़ी निशि-वासर से अाज दीप-धूप लैके चाँदनी की आरती लै भोग कंद कूजा को; ल्याइए न नेकौ बार खोलिए दया के द्वार, प्रकृति पुजारिनी खड़ी है नाथ पूजा को । धावनें क्यों न पठावती द्वार थकी मग जोय घड़ी-घड़ी आँखें . क्यों न पिये अभिनंदन काज पिरोवती मोतिन की लड़ी आँखें। क्यों न सँवारती री मकरंद, परी अरबिंद की पंखड़ी आँखें ढारती क्यों न कपोलन पै वै बड़े-बड़े बूंद बड़ी-बड़ी आँखें। नाम-(४३४६) अवधकिशोरसहाय वर्मा 'बाण', ग्राम कंचनपुर, जिला गया। जन्म-काल-सं० १९१७ 1 ग्रंथ-दर्शन और शिक्षा-विषयक स्फुट लेख । विवरण-श्रापने अपनी उच्च शिक्षा काशी-विश्वविद्यालय में । प्राप्त की, और वहीं से इन्होंने बी० ए० तथा एम० ए० की उपाधियाँ ती। तर्स-शास्त्र पर भी आपने परिश्रम किया है । इस समय श्राप राँची-ट्रनिंग-कॉलेज में हिंदी-साहित्य के अध्यापक हैं, और "चित्तौरोद्धार'-नामक छंदोबद्ध काव्य लिखने में व्यस्त हैं । सामयिक मासिक पत्रिकाओं में समय-समय पर आपके लेख निकला करते हैं। ,