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मिश्रबंधु

सं० १९८२ उत्तर नूतन चंद्र-चाँदनी में चार चमकि रहे हैं 'चख चतुर चितेरे चित चाहक चुटीली के । रास हू, रचाई रंग भूमि में रसिकराज, रंग रूप रेगि रहे "विह्वल' रँगीली के ; काजल की कोठरी में केसहु कहूँ ते जाय, पाउन कठिन वितु कालिख कटीली के । (माधुरी) नाम-( ४३५७ ) त्रिभुवननाथसिंह, 'सरोज' बिसवाँ, जिला सीतापुर। सं० १९५७ । रचनाकाल-सं० १६२

ग्रंथ-राधा-विनय-पचीसी (अप्रकाशित)।.

विवरण-श्राप कुर गंगाबक्ससिंह, ताल्लुकदार रामपुर कला विसों के तृतीय पुत्र श्रीवास्तव कायस्थ हैं। इन्होंने ताल्लुकदार- स्कूल, लखनऊ तथा ला-मार्टीनियर कॉलेज में शिक्षा पाई है। ब्रजभाषा के यह केवल अनन्य भक्त ही नहीं, वरन खड़ी बोली में काव्य- रचना के प्रकट रूप से विरोधी हैं। रचना ऊँची श्रेणी की जन्स-काल- उदाहरण अमल अकास भयो खंजन लखान लागे, फूले इंदीवर भोर भौंर गुजरन की धारि सिर छन्त्र चंद विहसत मंद-मंद, श्रामा त्यों अमंदावि बाढ़ी उडुगन की। बहत 'सरोज' सोंधी . परिमल, सनी पौन, . स्वच्छ सरितान सों है जोड़ी सारसन की प्रकृति बधाई मानो जगत को देन आई,. , सुखद सोहाई ऋतुः शरद है: मन की। .