पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ४.pdf/५६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५६३
५६३
मिश्रबंधु

. मिश्रबंधु-विनोद सं० १९८३ कच श्याम बलाहक से दरसैं चपला दुति दंतन की सुघराई ध्रुव बंक तनी सुर चाप मनो मुकुतावलि त्यों बग पाँति लखाई। धुनि किकिणि मिलिन की झनकार 'सरोज' सुदादुर बोल सुहाई। दुख द्वद नसाय सुखै बरसावत, राधिका पावस-सी बनि पाई। समय-संवत् १९८३ नाम-( ४३५८) गोविंदलाल झंगर 'आर्य, कृष्णद्वारका मुहल्ला, गया। जन्म-काल-सं० १९५८ । रचना-काल-सं० १९८३ । ग्रंथ-स्फुट कविताएँ। विवरण- आप गयावाल ब्राह्मण है। दक्खिन हैदराबाद के कई राजा-रईस आपके यजमान हैं । घर ही में आपने अपने परिश्रम द्वारा बँगला, अँगरेजी, उर्दू तथा संस्कृत में ज्ञान प्राप्त किया है। खड़ी बोली में अच्छी कविता करते हैं। उदाहरण--- कवि गूंथ रहे हो भावों की लड़ियों यह कब से हँस-हँसकर ? निनिमेष नयनों से किसको निरख रहे हो तुम जी भर ? किसके गुण पर मुग्ध हुए हो, किसका गाते हो तुम गान ? किस अव्यक्त अजान देश में गुजा रहे हो अपनी तान ? अवगुंठन को खोल-खोलकर झोंक रहे हो किसका रूप ? अलसानी आँखों की मदिरा किसकी पीकर श्राज अनूप ? थिरक रहे हो बार-बार तुम रखकर सबसे यह अज्ञात । किस वियोगिनी की आँखों में बसकर करते अशु-प्रपात ? किसके सुमधुर अधर लाल का करते हो सुदर रस-पान ? कौन पोडशी मानवती का तोड़ रहे हो रुचिकर मान ?