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मिश्रबंधु

सिनबंधु-विनोद सं० १९८६ उदाहरण- मैं हूँ तेरा अनुचर प्रभो, मोह-अज्ञान-अत्त, संसारों की प्रगति लख हूँ निंद्य उद्गाढ़ अत्त; उद्योगी हूँ, तदपि रहता सर्वदा रिक्त हस्त, सुद्रा - मुद्रा जपन करता त्याग स्वामी प्रशस्त । नाना रोग-ग्रसित रहता, लालसा वृद्धि पाती, चिंता में है निशि-दिन प्रभो, विश्व-माया दुआती : श्राशा से है यदपि मन को धैर्य होता सदा ही, पर होती है विफल जब, तो दुःख होता बड़ा ही है. यों ही मेरा प्रतिदिवस है व्यर्थ ही बीत जाता, है कोई भी कलित मुझसे कार्य होने न पाता। अज्ञानी हूँ, दस दिसि प्रभो, दीखता है अँधेरा, अंतर्यामी, बस अधिक क्या, ज्ञात ही हाल मेरा। नाके नौका भव-जलाधि के सध्य कैले जाऊँ सुतट पर कैवर्त तो ला पता है रक्खो जीता अतल जल में, या सुझे दो हुवा ही, मैं तो तेरी शरण श्रव हूँ हो कृपा या कृपाही । नाम-( ४३८३ ) लक्ष्मीनारायण गुप्त 'असौलिक जालौनवाले। जन्म-काल-सं० १६६१। रचना-काल-सं० १९८६ । विवरण-पिता रामचंद्र अग्रवाल ! संपन्न घर के पुरुष । पाप बड़े ही उत्साही तथा होनहार लेखक हैं। अमौलिकजी खड़ी बोली के सुकवि तथा श्रेष्ठ समालोचक हैं। आपने कई ग्रंथ श्राधे-आधे लिखे हैं, जो शीघ्र ही पूरे होंगे, ऐसी भाशा है। धुवती है,