पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

९८ मुण्डकोपनिषद् [ मुण्डक ३ बुद्धिलक्षणायाम् । तत्र हि निगूढं ' उनकी बुद्धिरूप गुहामें । यह विद्वानोंको उसीमें छिपा हुआ लक्ष्यते विद्वद्भिः तथाप्य- दिखायी देता है । तो भी अविद्यासे आच्छादित रहनेके कारण यह विद्यया संवृतं सन्न लक्ष्यते अज्ञानियोंको वहाँ स्थित रहनेपर भी तत्रस्थमेवाविद्वद्भिः ॥७॥ दिखायी नही देता ॥ ७ ॥ -- आत्मसाक्षात्कारका असाधारण साधन ---चित्तशुद्धि पुनरप्यसाधारणं तदुपलब्धि फिर भी उसकी उपलब्धिका साधनमुच्यते- असाधारण साधन बतलाया जाता है- न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा । ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्व- स्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ॥ ८ ॥ [ यह आत्मा ] न नेत्रसे ग्रहण किया जाता है, न वाणोमे, न अन्य इन्द्रियोंसे और न तप अथवा कर्म से ही । ज्ञानके प्रसादमे पुरुप विशुद्धचित्त हो जाता है और तभी वह ध्यान करनेपर उस निष्कल आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करता है ।॥ ८ ॥ यस्मान चक्षुषा गृह्यते केन- क्योंकि रूपहीन होनेके कारण यह आत्मा किसीसे भी नेत्रद्वारा चिदप्यरूपत्वान्नापि गृह्यते ग्रहण नहीं किया जा सकता, वाचानभिधेयत्वान्न चान्यदे- अवाच्य होनेके कारण वाणीसे वैग्तिरन्द्रियैः । तपसः सर्व- गृहीत नहीं होता और न अन्य इन्द्रियोंका ही विषय होता है। तप प्राप्तिसाधनत्वेऽपि न तपसा | सभीकी प्राप्तिका साधन है; तथापि