पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/११३

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खण्ड २]] शाङ्करमाध्यार्थ , न्तयानः प्रार्थयते स तैः कामभिः हुआ, कामना करता है वह उन कामधर्माधर्मप्रवृत्तिहेतुभिर्विषय- कामनाओं अर्थात् धर्माधर्ममें प्रवृत्ति करानेके हेतुभूत विषयोंकी इच्छा- च्छारूपैः सह जायते तत्र तत्र । रूप वासनाओंके सहित वहीं-वहीं यत्र यत्र उत्पन्न होता है; अर्थात् जहाँ-जहाँ विपयप्राप्तिनिमित्तं विषयप्राप्ति के लिये कामनाएँ पुरुष- 'कामाः कर्मसु पुरुषं नियोजयन्ति को कर्ममें नियुक्त करती हैं वह तत्र तत्र तेषु नेषु विषयेषु तैरेव वही-वहीं उन्ही-उन्ही प्रदेशोंमें उन कामनाओंमे ही परिवेष्टित हुआ कामेष्टितो जायत । जन्म ग्रहण करता है। यस्तु परमार्थतत्त्वविज्ञानात् परन्तु जो परमार्थतत्त्वके विज्ञान- पर्याप्तकाम आत्मकामत्वेन परि से पूर्णकाम हो गया है, अर्थात् आत्मप्राप्तिकी इच्छावाला होनेके समन्तत आप्ताः कामा यस्य कारण जिसे सब ओरसे समस्त तस्य पर्याप्तकामस्य कृतात्मनो- भोग प्राप्त हो चुके हैं उस पूर्णकाम विद्यालक्षणादपरम्पादपनीय कृतकृत्य पुरुषकी सभी कामनाएँ [लीन हो जाती हैं ] अर्थात् जिसने स्वेन परेण रूपेण कृत आत्मा विद्याद्वारा अपने आत्माको उसके विद्यया यस्य तस्य कृतात्मन- अविद्यामय अपररूपसे हटाकर अपने स्त्विव निष्ठत्येव शरीरे सर्वे पररूपसे स्थित कर दिया है उस कृतात्माके धर्माधर्मकी प्रवृत्तिके समस्त धर्माधर्मप्रवृत्तिहेतवः प्रविलीयन्ति हेतु इस शरीरमें स्थित रहते हुए ही विलयमुपयान्ति नश्यन्तीत्य- लीन अर्थात् नष्ट हो जाते हैं। अभि- प्राय यह है कि अपनी उत्पत्तिके हेतुका थः । कामास्तजन्महेतुविनाशान नाश हो जानेके कारण उसमें फिर जायन्त इत्यभिप्रायः ॥ २॥ कामनाएँ उत्पन्न नही होती ॥२॥