पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/११४

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१०६ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक ३ आत्मदर्शनका प्रधान साधन- -जिज्ञासा यद्येवं सर्वलाभात्परम आत्म- इस प्रकार यदि और सब लाभोंकी अपेक्षा आत्मलाभ ही लाभस्तल्लाभाय प्रवचनादय उत्कृष्ट है तो उसकी प्राप्तिके लिये उपाया बाहुल्येन कर्तव्या इति प्रवचन आदि उपाय अधिकतासे करने चाहिये-ऐसी बात प्राप्त प्राप्त इदमुच्यते- होने पर यह कहा जाता है- नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्य- स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं वाम्॥ ३ ॥ यह आत्मा न तो प्रवचन ( पुष्कल शास्त्राध्ययन ) से प्राप्त होने योग्य है और न मेधा ( धारणाशक्ति ) तथा अधिक श्रवण करनेसे ही मिलनेवाला है। यह (विद्वान् ) जिस परमात्माकी प्राप्तिकी इच्छा करता है उस (इच्छा) के द्वारा ही इसकी प्राप्ति हो सकती है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूपको व्यक्त कर देता है ॥ ३ ॥ योऽयमात्मा व्याख्यातो जिस इस आत्माकी व्याख्या यस्य लाभः परः पुरुषार्थो नासौ की गयी है, जिसका लाभ ही परम पुरुषार्थ है वह वेदशास्त्रके अधिक वेदशास्त्राध्ययनबाहुल्येन प्रवच- अध्ययनरूप प्रवचनसे प्राप्त होने नेन लभ्यः । तथा न मेधया योग्य नहीं है। इसी प्रकार वह ग्रन्थार्थधारणशक्त्या । न बहुना न मेधा--ग्रन्थके अर्थको धारण करनेकी शक्तिसे और न 'बहुना श्रुतेन नापि भूयसा श्रवणे- श्रुतेन' यानी अधिक शास्त्रश्रवणसे नेत्यर्थः। ही मिल सकता है।