पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/११७

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खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ १०९ आत्मदीकी ब्रह्मप्राप्ति का प्रकार कथं ब्रह्म मविशत इत्युच्यते विद्वान् किस प्रकार ब्रह्ममें प्रविष्ट होता है सो बतलाया जाता है- संप्राप्यैनमृषयो ज्ञानतृप्ताः कृतात्मानो वीतरागाः प्रशान्ताः । ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा युक्तात्मानः सर्वमेवाविशन्ति ॥ ५॥ इस आत्माको प्राप्त कर ऋषिगण ज्ञानतृप्त, कृतकृत्य, विरक्त और प्रशान्त हो जाते हैं । वे धीर पुरुप उस सर्वगत ब्रह्मको सब ओर प्राप्त कर ( मरणकालमें ] समाहितचित्त हो सर्वरूप ब्रह्ममे ही प्रवेश कर जाते है ॥५॥ मंप्राप्य ममवगम्यनमात्मा- इस आत्माको सम्यक प्रकारसे नमृषयो दर्शनवन्तस्तेनैव ज्ञानेन प्राप्त कर-जानकर ऋषि अर्थात् आत्मदर्शनवान् लोग. शरीरको पुष्ट तृप्ता बाह्येन तृप्ति- करनेवाले किसी बाह्य तृप्तिसाधनसे साधनेन शरीरोपचयकारणेन नही बल्कि उस ज्ञानसे ही तृप्त कृतात्मानः परमात्मस्वरूपेणैव हो कृतात्मा-जिनका आत्मा परमात्मस्वरूपसे ही निष्पन्न हो गया निष्पन्नात्मानः सन्तो वीतरागाः है ऐसे होकर तथा वीतराग- वीतरागादिदोषाः प्रशान्ता रागादि दोषोसे रहित और प्रशान्त उपरतेन्द्रियाः। । यानी उपरतेन्द्रिय हो जाते है । त एवंभूताः सर्वगं सर्वव्या ऐसे भावको प्राप्त हुए वे लोग सर्वग-आकाशके समान सर्व- पिनमाकाशवत्सर्वतः सर्वत्र प्राप्य व्यापक ब्रह्मको, उपाधिपरिच्छिन्न -नोपाधिपरिच्छिन्नेनैकदेशेन, , एक देशमे नहीं, बल्कि सर्वत्र न -