पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१२४

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मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक ३ और सबका 1 ब्रह्मविदप्यन्यां गतिं मृतो विघ्न उपस्थित कर दिये जानेसे ब्रह्मवेत्ता भी मरनेपर किसी दूसरी गच्छति न ब्रह्मैव । । गतिको प्राप्त हो जायगा-ब्रह्मको ही प्राप्त न होगा। नविद्ययैव सर्वप्रतिबन्धस्या समाधान नहीं, विद्यासे ही समस्त प्रतिबन्धोंके निवृत्त हो पनीतत्वात् । अविद्याप्रतिबन्ध- जानेके कारण ऐसा नहीं होगा । मोक्ष केवल अविद्यारूप प्रतिबन्ध- मात्रो हि मोक्षो नान्यप्रति- वाला ही है, और किसी प्रतिबन्ध- बन्धः, नित्यत्वादात्मभूतत्वाच । वाला नहीं है, क्योंकि वह नित्य आत्मस्वरूप है। तस्मात्- इसलिये-- स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्या- ब्रह्मवित्कुले भवति । तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहा- ग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति ॥ ६ ॥ जो कोई उस परब्रह्मको जान लेता है वह ब्रह्म ही हो जाता है । उसके कुलमें कोई अब्रह्मवित् नहीं होता। वह शोकको तर जाता है, पापको पार कर लेता है और हृदयग्रन्थियोंमे विमुक्त होकर अमरत्व प्राप्त कर लेता है ॥९॥ स यः कश्चिद्ध वै लोके तत्परमं इस लोकमें जो कोई उस परब्रह्मको जान लेता है-'वह ब्रह्म वेद साक्षादहमेवास्मीति स साक्षात् मैं ही हूँ' ऐसा समझ लेता नान्यां गतिं गच्छति । देवैरपि है, वह किसी अन्य गतिको प्राप्त नहीं होता । उसकी ब्रह्मप्राप्तिमें तस्य ब्रह्मप्राप्तिं प्रति विघ्नो न देवतालोग भी विघ्न उपस्थित नहीं शक्यते कर्तुम् । आत्मा ह्येषां स कर सकते, क्योंकि वह तो उनका