पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/३२

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२४ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ शुद्धः । मोक्षः परविद्याविषयोऽनाद्यनन्तो- मोक्ष परा विद्याका विषय है और ऽजरोऽमरोऽमृतोऽभयः वह अनादि, अनन्त, अजर, अमर, अमृत, अभय, शुद्ध, प्रसन्न, खख- प्रसन्नः खात्मप्रतिष्ठालक्षणः रूपमें स्थितिरूप तथा परमानन्द परमानन्दोऽद्वय इति । एवं अद्वितीय है। पूर्व तावदपरविद्याया विषय उन दोनोंमें पहले अपरा प्रदर्शनार्थमारम्भः । तदर्शने हि विद्याका विषय दिखलानेके लिये आरम्भ किया जाता है, क्योंकि तन्निर्वेदोपपत्तेः । तथा च उसे जान लेनेपर ही उससे विराग वक्ष्यति-'परीक्ष्य लोकान्कर्म- हो सकता है। ऐसा ही 'परीक्ष्य चितान्' (मु० उ० १ । २ । १२) लोकान्कर्मचितान्' इत्यादि वाक्योंसे आगे कहेगे भी । बिना दिखलाये इत्यादिना । न ह्यप्रदर्शिते हुए उसकी परीक्षा नहीं हो सकती; परीक्षोपपद्यत इति तत्प्रदर्शय- अतः उस ( कर्मफल ) को दिख- नाह- लाते हुए कहते हैं- तदेतत्सत्यं मन्त्रेषु कर्माणि कवयो यान्यपश्यंस्तानि त्रेतायां बहुधा सन्ततानि । तान्याचरथ नियतं सत्यकामा एष वः पन्थाः सुकृतस्य लोके ॥ १॥ बुद्धिमान् ऋषियोंने जिन कर्मोका मन्त्रोंमे साक्षात्कार किया था वही यह सत्य है, त्रेतायुगमें उन कर्मोका अनेक प्रकार विस्तार हुआ । सत्य ( कर्मफल ) की कामनासे युक्त होकर उनका नित्य आचरण करो; लोकमें यही तुम्हारे लिये सुकृत ( कर्मफलकी प्राप्ति ) का मार्ग है ॥ १ ॥ तदेतत्सत्यमवितथम् । कि वही यह सत्य अर्थात् अमिध्या तत्? मन्त्रेष्वृग्वेदाद्याख्येषु कर्माणि है । वह क्या ? ऋग्वेदादि मन्त्रोंमें अग्निहोत्रादीनि मन्त्रैरेव प्रकाशि- | मन्त्रोंद्वारा ही प्रकाशित जिन