पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/३५

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खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ २७ विधिहीन कर्मका कुफल एष सम्यगाहुतिप्रक्षेपादि यह यथाविधि आहुतिप्रदानरूप कर्ममार्ग [स्वर्गादि ] लोकोंकी लक्षणः कर्ममार्गो लोकप्राप्तये प्राप्तिका साधन है । इसका यथा- पन्थास्तस्य च सम्यकरणं दुष्करम् । वत् होना बड़ा ही दुष्कर है । इसमें अनेकों विपत्तियाँ आ सकती विपत्तयस्त्वनेका भवन्ति । कथम्? हैं । किस प्रकार ? [सो बतलाते हैं-] यस्याग्निहोत्रमदर्शमपौर्णमास- मचातुर्मास्यमनाग्रयणमतिथिवर्जितं च । अहुतमवैश्वदेवमविधिना हुत- मासप्तमांस्तस्य लोकान्हिनस्ति ॥ ३ ॥ जिसका अग्निहोत्र दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य और आग्रयण-इन कर्मोंसे रहित, अतिथि-पूजनसे वर्जित, यथासमय किये जानेवाले हवन और वैश्वदेवसे रहित अथवा अविधिपूर्वक हवन किया होता है, उसकी मानो सात पीढ़ियोंका वह नाश कर देता है ॥३॥ यस्याग्निहोत्रिणोऽग्निहोत्रमदर्श जिस अग्निहोत्रीका अग्निहोत्र अदर्श-दर्शनामक कर्मसे रहित दर्शाख्येन कर्मणा वर्जितम् । होता है, क्योंकि अग्निहोत्रियोंको अग्निहोत्रिणोऽवश्यकर्तव्यत्वाद् दर्शकर्म अवश्य करना चाहिये । अग्निहोत्रसे सम्बन्ध रखनेवाला दर्शस्य। अग्निहोत्रसम्बन्ध्यग्निहोत्र- होनेके कारण यह अग्निहोत्रके विशेषणके समान विशेषणमिव भवति । तदक्रिय- प्रयुक्त हुआ है। अतः जिसके माणमित्येतत् । तथापौर्णमासम् द्वारा इसका अनुष्टान नहीं किया जाता । इसी प्रकार 'अपौर्णमासम्' इत्यादिष्वप्यग्निहोत्रविशेषणत्वं आदिमें भी अग्निहोत्रका विशेषणत्व देखना चाहिये, क्योंकि अग्निहोत्रके द्रष्टव्यम्, अग्निहोत्राङ्गत्वस्य । अङ्ग होनेमें उन [पौर्णमास आदि ] दर्शकर्म]