पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/४

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(२) निरूपण करता है और उत्तरार्ध में मुख्यतया परा विद्या और उसकी प्राप्तिके साधनोंका विवेचन है । इस उपनिषद्की वर्णनशैली बड़ी ही उदात्त एवं हृदयहारिणी है, जिससे स्वभावतः ही जिज्ञासुओंका हृदय इसकी ओर आकर्षित हो जाता है उपनिषदोंका जो प्रचलित क्रम है उसके अनुसार इसका अध्ययन प्रश्नोपनिषद्के पश्चात् किया जाता है । परन्तु प्रस्तुत पुस्तकके पृष्ठ ९४ पर भगवान् शङ्कराचार्य लिखते हैं- 'वक्ष्यति च 'न येषु जिह्ममनृतं न माया च' इति' अर्थात् 'जैसा कि आगे (प्रश्नोपनिषदमें ) जिन पुरुपोमें अकुटिलता, अनृत और माया नही है' इत्यादि वाक्यद्वारा कहेगे भी।' इस प्रकार प्रश्नोपनिपद्के प्रथम प्रश्नके अन्तिम मन्त्रका भविष्यकालिक उल्लेख करके आचार्य सूचित करते हैं कि पहले मुण्डकका अध्ययन करना चाहिये और उसके पश्चात् प्रश्नका । प्रश्नोपनिपदका भाष्य आरम्भ करते हुए तो उन्होने इसका स्पष्टतया उल्लेख किया है । अतः शाङ्करसम्प्रदायके वेदान्तविद्यार्थियोको उपनिषद्भाष्यका इमी क्रमसे अध्ययन करना चाहिये । अस्तु, भगवान्ये प्रार्थना है कि इस ग्रन्थके अनुशीलनद्वारा हमें ऐसी योग्यता प्रदान करें जिससे हम उनके मर्या- धिष्टानभूत पगत्पर स्वरूपका रहस्य हृदयङ्गम कर सके । अनुवादक