पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ ३३ प्लवा विनाशिन इत्यर्थः। 'प्लव' का अर्थ विनाशी है ! क्योंकि सोलह ऋत्विक तथा यजमान हि यस्मादेतेऽदृढा अस्थिरा यज्ञ- और पत्नी—ये अठारह यज्ञरूप- रूपा यज्ञस्य रूपाणि यज्ञरूपा यज्ञके रूप यानी यज्ञके सम्पादक, यज्ञनिर्वतका अष्टादशाष्टादश- जिनमें केवल ज्ञानरहित कर्म आश्रित संख्याकाः षोडशर्विजः पत्नी है, अदृढ- -अस्थिर हैं और शास्त्रोंमें यजमानश्चेत्यष्टादश, एतदाश्रयं इन्हींके आश्रित कर्म बतलाया कर्मोक्तं कथितं शास्त्रेण, येष्वष्टा- है; अतः उस अवर कर्मके दशस्ववर केवलं ज्ञानवर्जितं कर्मः उन अठारह आश्रयोंके अदृढतावश अतस्तेषामवरक मर्माश्रयाणामष्टा-प्लव अर्थात् विनाशशील होनेके दशानामढतया प्लवत्वात्प्लवते कारण उनसे निष्पन्न होनेवाला कर्म, सह फलेन तत्साध्यं कर्म; कँडेके नाशसे उसमें रखे हुए दृध कुण्डविनाशादिवत्क्षीरदध्यादीनां और दही आदिके नाशके समान, तत्स्थानां नाशः। नष्ट हो जाता है। यत एवमेतत्कर्म श्रेयःश्रेयः क्योंकि ऐसी बात है, इसलिये जो अविवेकी मूढ पुरुष 'यह कर्म करणमिति येऽभिनन्दन्त्यभि- श्रेय यानी श्रेयका साधन है' ऐसा मानकर अभिनन्दित -अत्यन्त हृष्यन्त्यविवेकिनो मूढा अतस्ते हर्षित होते हैं वे इस (.हर्ष ) के जरां च मृत्युं च जरामृत्युं किञ्चि- द्वारा जरा और मृत्युको प्राप्त होते हैं; अर्थात् कुछ समय स्वर्गमें रहकर त्कालं खर्गे स्थित्वा पुनरेवापि फिर भी उसी जन्म-मरणको प्राप्त यन्ति भूयोऽपि गच्छन्ति ॥७॥ हो जाते हैं ॥ ७ ॥