पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/४९

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खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ अब , इत्युच्यते-निर्वेदम् । निःपूर्वो लाते हैं—'निर्वेद करें' । यहाँ 'नि' विदिरत्र वैराग्याथै वैराग्य- पूर्वक 'विद्' धातु वैराग्य अर्थमें है; मायात्कुर्यादित्येतत् । अतः तात्पर्य यह है कि 'वैराग्य करें। स वैराग्यप्रकारः प्रदर्श्यते । वह वैराग्यका प्रकार इह संसारे नास्ति कश्चिदप्यकृतः कोई भी अकृत ( नित्य ) पदार्थ दिखलाया जाता है । इस संसारमें पदार्थः । सर्व एव हि लोकाः नहीं है । सभी लोक कर्मसे सम्पादन कर्मचिताः कर्मकृतत्वाच्चानित्याः, किये जानेवाले हैं और कर्मकृत न नित्यं किञ्चिदस्तीत्यभिप्रायः। होनेके कारण अनित्य हैं। तात्पर्य यह कि इस संसारमें नित्य कुछ भी सर्व तु कर्मानित्यस्यैव साधनम् । नहीं है । सारा कर्म अनित्य फलका यसाच्चतुर्विधमेव हि सर्व कर्म ही साधन है । क्योंकि सारे कर्म, कार्य, उत्पाद्य, आप्य और विकार्य कार्यमुत्पाद्यमाप्यं संस्कार्य अथवा संस्कार्य चार ही प्रकारके विकार्य वा, नातः परं कर्मणो हैं, इनसे भिन्न कर्मका और कोई विशेषोऽस्ति । अहं च नित्येन नित्य, अमृत, अभय, कूटस्थ, अचल प्रकार नहीं है । किन्तु मैं तो एक अमृतेनाभयेन कूटस्थेनाचलेन और ध्रुव पदार्थकी इच्छा करनेवाला ध्रुवेणार्थेनार्थी न तद्विपरीतेन । हूँ उससे विपरीत स्वभाववालेकी मुझे आवश्यकता नहीं है । अतः अतः किं कृतेन कर्मणायासबहु- इस श्रमबहुल एवं अनर्थके साधन- लेनानर्थसाधनेनेत्येवं निर्विष्णो- भूत कृत-कर्मसे मुझे क्या प्रयो- ऽभयं शिवमकृतं नित्यं पदं जन है ? इस प्रकार विरक्त होकर जो अभय, शिव, अकृत और नित्य- यत्तद्विज्ञानार्थ विशेषेणाधिगमार्थ पद है उसके विज्ञानके लिये- स निर्विष्णो ब्राह्मणो गुरुमेवा- विशेषतया जाननेके लिये वह विरक्त चार्य शमदमदयादिसम्पन्नमभि- ब्राह्मण शम-दमादिसम्पन्न गुरु यानी आचार्यके पास ही जाय । शास्त्रज्ञ गच्छेत् । शास्त्रज्ञोऽपि स्वातन्त्र्येण होनेपर भी खतन्त्रतापूर्वक ब्रह्मज्ञान-