पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/५७

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ रूपात्सर्वकार्यकरणबीजत्वेनोप- होता है उस अक्षरसे-सम्पूर्ण कार्य-करणके बीजरूपसे उपलक्षित लक्ष्यमाणत्वात्परं तदुपाधिलक्षण- होने के कारण उन उपाधियोंवाला मव्याकृताख्यमक्षरं सर्वविकारेभ्यः अव्याकृतसंज्ञक वह अक्षर अपने सम्पूर्ण विकारसे श्रेष्ठ है; उस सर्वोत्कृष्ट तस्मात्परतोऽक्षरात्परो निरु- अक्षरसे भी वह निरुपाधिक पुरुष पाधिकः पुरुष इत्यर्थः । उत्कृष्ट है-ऐसा इसका तात्पर्य है। यस्मिंस्तदाकाशाख्यमक्षरं किन्तु जिसमें सम्पूर्ण व्यवहार- संव्यवहारविषयमोतं प्रोतं च का विषयभूत वह आकाशसंज्ञक अक्षरतत्त्व ओतप्रोत है वह कथं पुनरप्राणादिमत्त्वं तस्येत्यु- प्राणादिसे रहित कैसे हो सकता च्यते । यदि हि प्राणादयः प्रागु- है ? ऐसी शङ्का होनेपर कहते हैं-यदि प्राणादि अपनी उत्पत्तिसे त्पत्तेः पुरुष इव स्वेनात्मना पूर्व भी पुरुपके समान स्वस्वरूपसे सन्ति तदा पुरुषस्य प्राणादिना विद्यमान रहते तो उन विद्यमान प्राणादिके कारण पुरुषका प्राणादि- विद्यमानेन प्राणादिमत्वं भवेन्न युक्त होना माना जा सकता था। तु ते. प्राणादयः प्रागुत्पत्तेः किन्तु उस समय वे अपनी उत्पत्तिसे पुरुष इव स्वेनात्मना सन्ति पूर्व पुरुषके समान स्वरूपतः हैं नहीं; अतोप्राणादिमान्परः इसलिये, जिस प्रकार पुत्र उत्पन्न न होनेतक देवदत्त पुत्रहीन कहा जाता पुरुषः; यथानुत्पने पुत्रेपुत्रो है उसी प्रकार परम पुरुष भी देवदत्तः॥२॥ अप्राणादिमान् है ॥२॥ तदा,