पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/६४

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मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक २ अनियताक्षरपादावसानानि जिनके पादोंका अन्त नियमित अक्षरों में नहीं होता ऐसे वाक्यरूप वाक्यरूपाण्यवं त्रिविधा मन्त्राः। मन्त्र-इस प्रकार ये तीनों प्रकारके दीक्षा मोज्यादिलक्षणा कर्तृ- मन्त्र [ उत्पन्न हुए हैं । तथा । उसीसे] दीक्षा--मौञ्जी-बन्धन आदि नियमविशेषाः । यज्ञाश्च सर्वेऽग्नि- कर्ताके नियमविशेष, अग्निहोत्रादि होत्रादयः । क्रतवः सयूपाः। सम्पूर्ण यज्ञ, ऋतु-यूपसहित यज्ञ, दक्षिणाश्चैकगवाद्यपरिमितसर्व- दक्षिणा–एक गौसे लेकर अपने अपरिमित सर्वस्वदानपर्यन्त, स्वान्ताः । संवत्सरश्च कालः संवत्सर-कर्मका अङ्गभूत काल, कर्माङ्गः। यजमानश्च कर्ता। यजमान -यज्ञकर्ता, तथा उसके कर्मके फलस्वरूप लोक उत्पन्न हुए लोकास्तस्य कर्मफलभूतास्ते हैं । उन लोकोंकी विशेषताएँ विशेष्यन्तेः सोमो यत्र येषु लोकेषु बतलाते हैं—जिन लोकोंमें चन्द्रमा लोकोंको पवित्र करता है और पवते पुनाति लोकान्यत्र येषु जिनमें सूर्य तपता रहता है वे सूर्यस्तपति च ते च दक्षिणाय- विद्वान् और अविद्वान् कर्ताके कर्मफलभूत दक्षिणायन-उत्तरायण नोत्तरायणमार्गद्वयगम्या विद्वद- इन दो मार्गसे प्राप्त होनेवाले लोक विद्वत्कर्तृफलभूताः ॥ ६॥ उत्पन्न होते हैं ॥६॥ तस्माच्च देवा बहुधा सम्प्रसूताः साध्या मनुष्याः पशवो वयांसि । प्राणापानौ व्रीहियवौ तपश्च श्रद्धा सत्यं ब्रह्मचर्य विधिश्च ॥ ७॥