पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/६९

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ ६१ अभिहितं 'कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते किसको जान लेनेपर यह सब कुछ जान लिया जाता है ?' ऐसा जो सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति' । प्रश्न किया गया था उसीका यहाँ उत्तर एतस्मिन्हि परमिन्नात्मनि सर्व दिया गया है कि 'सबके कारण- कारणे पुरुषे विज्ञाते पुरुष एवेदं स्वरूप इस परमात्माको जान लेनेपर ही यह ज्ञान हो जाता है कि यह विश्वं नान्यदस्तीति विज्ञातं विश्व पुरुष ही है, उससे भिन्न भवतीति । नहीं है।' किं पुनरिदं विश्वमित्युच्यते । किन्तु यह विश्व है क्या ? ऐसा प्रश्न होनेपर कहते हैं- कर्माग्निहोत्रादिलक्षणम् । तपो अग्निहोत्रादिरूप कर्म, तप यानी ज्ञानं तत्कृतं फलमन्यदेतावद्धीदं ज्ञान, उसका फल तथा इसी सर्वम् । तच्चैतब्रह्मणः कार्यम् । प्रकारका यह और सब भी [ विश्व कहलाता है ] । यह सब ब्रह्मका तस्मात्सर्व ब्रह्म परामृतं परममृतम् ही कार्य है । इसलिये यह सब पर अहमेवेति यो वेद निहितं स्थितं अमृत ब्रह्म है और परामृत ब्रह्म मैं ही हूँ--ऐसा जो पुरुष सम्पूर्ण गुहायां हृदि सर्वप्राणिनां स एवं प्राणियोंके हृदयमें स्थित उस ब्रह्मको विज्ञानादविद्याग्रन्थि ग्रन्थिमिव जानता है हे सोम्य-हे प्रियदर्शन! वह अपने ऐसे विज्ञानसे अविद्या- दृढीभूतामविद्यावासनां विकिरति ग्रन्थिको यानी ग्रन्थि ( गाँठ ) के विक्षिपति नाशयतीह जीवनेव समान दृढ हुई अविद्याकी वासनाको इस लोकमें जीवित रहते ही काट नमृतः सन् हे सोम्य प्रियदर्शन१०/ डालता है-मरकर नहीं ॥१०॥ इत्यथर्ववेदीयमुण्डकोपनिषद्भाष्ये द्वितीयमुण्डके प्रथमः खण्डः ॥१॥