पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१०१

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मुद्राराक्षस नाटक धूएँ से घबड़ा कर निकल तो सके ही नहीं, इससे वे वीभत्सकादिक वहीं भीतर ही जलकर राख हो गए। राक्षस-(मोच से) मित्र ! देख चंद्रगुप्त का भाग्य कि सबके सब. मर गए । (चिंता सहित ) अहा ! सखा ! देख इस दुष्ट चंद्रगुप्त का भाग्य ! कन्या जो विष की गई त हि हतन के काज । तासों मार्यो पर्वतेक जाको आधो राज ॥ सवै नसे कल बल समित जे पठये बध हेत । उलटी मेरी नीति सब मौर्यहि को फल देत । ३०॥ विराधगुप्त-प्रहाराज ! तब भी उद्योग नहीं छोड़ना चाहिए- . प्रारंभ ही नहिं विघ्न के भय अधम जन उद्यम सजे। . पुनि करहिं तौ कोऊ विध्न सो डरि मध्य ही मध्यम तर्जे ॥ धरि लात विन अनेक पै निरभय न उद्यम ते टरें । जे पुरुष उत्तम अंत में ते सिद्ध सब कारज करें ॥ और भी- का सेसहि नहिं भार पै धरती देत न डारि । कहाँ दिवसमनि नहिं थकत ? पै नहिं रुकत विचारि । साजन ताको हित करत, जेहि किय अंगीकार । यहै नेम सुकृतीन को, निज जिय करहु विचार ॥ . ३१० राक्षस-मित्र ! यह क्या तू नहीं जानता कि मैं प्रारब्ध के भरोसे नहीं हूँ ? हाँ फिर- विराधगुप्त-तब से दुष्ट चाणक्य चंद्रगुप्त की रक्षा में चौकन्ना रहता है और इधर-घर के अनेक उपाय सोचा करता है और , पहिचान पहिचान के नंद के मंत्रियों को पकड़ता है। 'राक्षस-(घबड़ा कर ) हां! कहो तो मित्र ! उसने किसे किसे विराधगुप्त-प्रब के पहले तो जीवसिद्धि क्षपणक को निरादर करके नगर से निकाल दिया।