पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१०४

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बताया ( राक्षस को देख कर ) यह मंत्री राक्ष बठे हैं। अहा! . नंद गए हू नहिं तजत प्रमुसेवा को स्वाद । भूमि वैठि प्रगटत मनहुँ स्वामिभक्त-मरजाद ।। (पास जाकर ) मंत्री की जय हो। राक्षस- देखकर आनंद से ) मित्र शकटदा! आओ मुझसे मिल लो, क्योंकि तुम दुष्ट चाक्णय हाथ से बच के आए हो। शकटदास-(मिलता है)। राक्षस-(मिलकर ) यहाँ बैठो। शकटदास-जो आज्ञा ( बैठता है)। राक्षस -मित्र शकटदास! कहो तो यह आनंद की बात कैसे हु ई ३६० शकटदास-सिद्धार्थ क को दिखकर ) इस प्यारे सिद्धार्थक ने सली देनेवाले लोगों को हटाकर मुझको बचाया। राक्षस-(आनंद से ) वह सिद्धार्थक ! तुमने काम तो अमूल्य "किया है, पर भला ! तब भा यह जो कुछ है सो लो (अपने अंग से आभरण उतारकर देता है)। सिद्धार्थक-( लेकर आप ही आप ) चाणक्य के कहने से मैं अब करूंगा । ( पैर पर गिरके प्रकाश ) महाराज ! यहाँ मैं पहले पहल आया हूँ इससे मुझे यहाँ कोई नहीं जानता कि उसके पास इन भूषणों को छोड़ जाऊँ, इससे आप इसो अँगूठी से इस पर मोहर करके इसको अपने ही पास रक्ख, मुझे जब काम होगा ले जाऊगा। राक्षस-क्या हुआ । अच्छा शकटदास ! जो यह कहता है वह करो। शकटदास-जो आज्ञा (मोहर पर राक्षस का नाम देखकर धीरे ले) मित्र ! यह तो तुम्हारे नाम की मोहर है। राक्षस-( देखकर बड़े सोच से आप ही भाप) हाय हाय ! इसको तो जब मैं नगर से निकला था तब ब्राह्मणी ने मेरे स्मरणार्थ ने लिया था। यह इसके हाथ कैसे लगी । (प्रकाश) सिद्धार्थक तुमने यह कैसे पाई। H० ना०-३ ४००