पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१०९

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३८ मुद्राराक्षस नाटक- चारु चमेली बन रही महमह महँकि सुबास । नदी तीर फूले लखौ सेत सैत बहु कास ॥ कमल कुमोदिनी सरन में फूले सोभा देत । भौर-वृद जापै लखौं गूजि पूँजि रस लेत ॥ बसन चाँदनी, चंद मुख, उडुगन मोतीमाल । कासफूल मधु हास, यह सरद किधौं नव बाल ॥ (चारों भोर देखकर ) कंचुकी ! यह क्या ? नगर में ६० चंद्रिकोत्सव कहीं नहीं मालूम पड़ता ? क्या तूने सब लोगों से ताकीद करके नहीं कहा था कि उत्पव हो ? ' " कंचुकी-महाराज सबसे ताकीद कर दी थी। . राजा-तो फिर क्यों नहीं हुआ ? क्या लोगों ने हमारी आज्ञा नहीं मानी ? कंचुकी-( कान पर हाथ रखकर ) राम राम ! भला नगर क्या, इस पृथ्वी में ऐसा कौन है, जो आपकी आज्ञा न माने १ राजा-तो फिर चंद्रिकोत्सव क्यों नहीं हुआ? देख न- गज रथ बाजि सजे नहीं, बँधी न बंदनवार । तने बितान न कहुँ नमर, रंजित कहूँ न द्वार ॥ नर नारी डोलत न कहुँ फूलमाल गर डार। नृत्य बाद धुनि गीत नहिं सुनियत श्रवण मझार ।। कंचुकी-महाराज ! ठीक है, ऐसा ही है । राजा-क्यों ऐसा ही है ? कंचुकी-महाराज योहो है। राजा-स्पष्ट क्यों नहीं कहता ? कंचुकी-महाराज चंद्रिकोत्सव बंद किया गया है। राजा-(क्रोध से ) किसने बंद किया है ?... कंचुकीं-हाथ जोड़कर) महाराज! यह मैं नहीं कर सकता। राजा-कहीं आर्य चाणक्य ने तो नहीं बंद किया ? कंचुकी-महाराज ! और किसको अपने प्राणों से शत्रुता करने थी? ७०