पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१३२

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बतुर्थ अंक प्रियंवदक-जीवसिद्धि है। राक्षस-अच्छा, बुलाकर ले भा। प्रियंवदक-जो आज्ञा । (जाता है) [क्षपणक पा है। पहले कटु परिणाम मधु, औषध सम उपदेश । मोह-व्याधि के वैद्य गुरु, तिनको सुनहु निदेश ॥ [पास जाकर ) उपासक ! धर्म लाभ हो। २८० राक्षस-ज्योतिषी जी, बताओ, अब हम लोग प्रस्थान किस दिन क्षपणक -(कुछ सोच कर ) उपासक ! मुहूर्त तो देखा। भाज मद्रा तो पहर पहले ही छूर गई है और तिथि भी संपूर्ण चंद्रा पौर्णमासी है। आप लोगों को उत्तर से दक्षिण जाना है और नक्षत्र भी दक्षिण ही है। अथए सूरहि, चंद के उदये गमन प्रशस्त । पाइ लगन बुध केतु ती उदयो हू भो भरत ॥ राक्षस-अजी पहले तो तिथि नहीं शुद्ध है। क्षपणक-उपासक! २९. एक गुनी तिथि होत है, त्यों चौगु न नक्षत्र । लगन होत चौंसठ गनो यह भाखत सब पत्र । लगन होत है शुभ लगन छोरि कूर ग्रह एक। जाहु चंद-बल देखिकै पावहु लाम भनेक ॥ राक्षस:- प्रजी, तुम और ज्योतिषियों से जाकर झगड़ो। . क्षपणक-आप ही मगड़िए, मैं जाता हूँ। राक्षस -क्या आप रूस तो नहीं गए ? क्षपणक-नहीं, तुमसे ज्योतिषी नहीं रूसा है। राक्षस-तो कौन सा है ? क्षपणक-(आप ही प्राप) भगवान्, कि तुम अपना पक्ष ३०० छोड़ कर शत्रु का पक्ष ले बैठे हो ( जाता है)। राक्ष-नियंत्रक ! देख तो कौन समय है ?