पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१३३

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६२ मुद्राराक्षसन प्रियंवदक-जो आज्ञा । ( बाहर से हो पाता है) आर्य ! सूर्या होता है। राक्षस--(आसन से बैंठकर और देख कर ) अहा! भगवा सूर्य अस्ताचल को चले- जब सूरज उदयो प्रबल तेज धारि आकास ॥ तब उपवन तरुवर सबै छायानुत भे पास ॥ दूरि परे ते तरु सबै अस्त भए रविताप । जिमि धन बिनु स्वामिहि तजै भत्य स्वारथी श्राप । ( दोनों जाते है) इति चतुर्थोक । पंचम अंक हाथ में मोहर की हुई गहने की पेटी और पत्र लेकर सिद्धार्थक आता है ] सिद्धार्थक-अहाहा! देशकाल के कलश में सिंची बुद्धि-जल जौन । सता नीति चाणक्य को बहु फल देहे तीन । अमात्य राक्षस की मोहर का आयें चाए क्य का लिखा हुआ यह लेख और मोहर की हुई यह श्राभूषण की पेटका लेकर मैं पर्ट बाता हूँ (नेपथ्य की भोर देख कर ) अरे ! यह क्या क्षपणक पान है। हाय हाय ! यह तो बुरा असगुन श्रा। तो मैं सूरज को दे कर उसका दोष छुड़ा लू । [रूपण आता है। अपशक-नमो नमो अहंत को जो निज बुद्धि-प्रताप । लोकोत्तर की सिद्धि सब करत हस्तगत आप ॥ . सिद्धार्थक-मदत ! प्रणाम । वाणक-उपासक ! धम लाम.हो ( भली भांति देख कर ) बाम तो समुद्र पर होने का बड़ा भारी उद्योग कर रक्खा है।