पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१३६

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पंचम अंक मलयकेतु-विजये ! तुम दबे पाँव उधर से पापो मैं पीछे से जाकर मित्र भागुरायण की आँखें बंद करता हूँ। प्रतिहारी-जो प्राज्ञा। [ दोनों दबे पाँव से चलते हैं और भासुरक आता है ] भासुरक-(भागुरायण से ) बाहर क्षपणक आया है उसको मोहर चाहिए। भागुरायण-अच्छा, यहाँ भेज दो। भासुरक-जो भाज्ञा ( जाता है)। [क्षपणक आता है ] क्षपणक-श्रावक को धर्म लाभ हो। भागुरायण-(छल से उसकी ओर देख कर ) यह तो राक्षस का मित्र जीवसिद्धि है ( प्रगट ) भदंत ! तुम नगर में राक्षस के किसी काम से जाते होगे? क्षपणक -(कान पर हाथ रख कर ) छी छी! हम से राक्षस व पिशाच से क्या काम ? भागुरायण-आज तुमसे और मित्र से कुछ प्रेम-कलह हुआ है, पर यह तो बताओ कि राक्षस ने तुम्हारा कौन अपराध किया है ? क्षपणक-राक्षस ने कुछ अपराध नहीं किया है, अपराधी तो ९. भागुरायण-ह ह ह ह ! भदंत ! तुम्हारे इस कहने से तो मुझको सुनने की और भी उत्कंठा होती है। मलयकेतु-(आप ही आप ) मुझको भी। भागुरायण-वो कहते क्यों नहीं ? क्षरणक-तुम सुन के क्या करोगे? भागुरायण-तो जाने दो हमें कुछ आग्रह नहीं है, गुप्त हो तो मत कहो। क्षपणक-नहीं उपासक ! गुप्त ऐसा नहीं है, पर वह बहुत बुरी भागुरायण-तो जाओ हम तुमको परवाना न देंगे। मु० ना०-५