पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१३९

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६८ मुद्राराक्षस नाव गुन पै रिझवति, दास सां दूर बचावति जौन। . स्वामिभक्ति जननी सरिस, प्रनमत नित हम तौन ॥ पुरुष-(हाथ जोड़कर ) कुमार यही मनुष्य हैं। भागुरायण-(अच्छी तरह देखकर ) यह क्या बाहर का मनुष्य है या यहीं किसी का नौकर है ?. सिद्धार्थक-मैं अमात्य राक्षस का पासवर्ती सेवक हूँ? ___ भागुरायण-तो तुम क्यों मुद्रा लिए बिना कटक के बाहर जाते थे? सिद्धार्थक-आय ! काम की जल्दी से। भागुरायण-ऐसा कौन काम है जिसके आगे राजाज्ञा को भी कुछ मोल नहीं गिना। सिद्धार्थक-(भागुराया के हाथ में लेख देता है। भागुरायण-(लेख लेकर देखकर ) कुमार ! इस लेख पर .. अमात्य राक्षस की मुहर है। मलयकेतु-इस तरह से खोलकर दो कि मुहर न टूटे। भाणुरायण-(पत्र खोलकर मलयकेतु को देता है)। मलयकेतु-(पढ़ता है ) स्वस्ति यथा स्थान में कहीं से कोई किसी. पुरुष विशेष को कहता है। हमारे विपक्ष को निराकरण करके सच्चे मनुष्य ने सचाई दिखाई। अब हमारे पहले के रक्खे हुए हितकारी मित्रों को भी जो जो देने को कहा था वह देकर प्रसन्न करना। यह लोग प्रसन्न होंगे तो अपने आश्रय का विनाश करने पर सब भाँति अपने उपकारी की सेवा करेंगे। सच्चे लोग कहीं नहीं भूलते तो भी हम स्मरण कराते हैं। इनमें से कोई शत्रु का कोष और १८० हाथी चाहते हैं और कोई राज गहते हैं। हमको सत्यवादी ने जो .तीन अलंकार भेजे से मिले । हमने भी लेख अशून्य करने को कुछ भेजा है सो लेना और जवानी हमारे अत्यत प्रामाणिक सिद्धार्थक से सुन लेना। '.. मलयकेतु-मित्र भागुरायण ! इस लेख का आशय क्या है ? भागुरायण-भद्र सिद्धार्थक ! यह देख किसका है ?