पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१६३

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मुद्राराक्षस नाटक राचस-मित्र चंदनदास ! उलहना मत दो, सभी स्वार्थी हैं। (चांडाल से ) अजी ! तुम दुष्ट चाणक्य से कहो। दोनों चांडाल-क्या कहैं ? .

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जिन कलि में हूँ मित्र-हित तृन सम छोड्यो प्रान । जाके जस-रवि सामुहे सिवि जस दीप समान ॥ जाको भति निर्मल चरित, दया आदि नित जानि । बौद्धहु सब लज्जित भए, परम शुद्ध जेहि मानि ॥ ता पूजा के पात्र को मारत धरि त, पाप ! जाके हित, सो शत्रु तुव आयो इत मैं आप ! चांडाल-भरे वेणुवेत्रक ! तू चंदनदास को पकड़कर इस मसान के पेड़ की छाया में बैठ, तब से मंत्री चाणक्य को समाचार दूं कि अमात्य राक्षम पकड़ा गया। - २ चांडाल -अच्छारे वज्रलोमक ! ( चंदनदास, स्त्री, बालक और सूली को लेकर जाता है।) १ चांडाल-( राक्षस को लेकर घूम कर ) अरे ! यहाँ पर कौन है ? नंदकुल-सैनासंचय के चूर्ण करने वाले वज्र से, वैसे ही मौर्यकुर में लक्ष्मी और धर्म स्थापना करने वाले आर्य चाणक्य से कहो- ___राक्षस- आप हो आप) हाय ! यह भी राक्षस को सुनन लिखा था। . चांडाल-(कि आपकी नीति ने जिसकी बुद्धि को घेर लिय है, वह अमात्य राक्षस पकड़ा गया। [परदे में सब शरीर छिपाए केवल मुंह खोले चाणक्य आता है। चाणक्य-अरे । कहो, कहो। किन जिन बसननि मैं घरो कठिन अगिनि की ज्वाल ? रोकी किन गति वायु की डोरिन ही के जाल ?