पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सप्तम अंक ६७ ____ चाणक्य-अजी अभी ठहरो, सुनो ! दुर्गपाल विजयपाल से यह कह दो कि अमात्य राक्षस के शस्त्र-ग्रहण से प्रसन्न होकर

  • महाराज चंद्रगुप्त यह माज्ञा करते हैं कि "चंदनदास को सब २२०

नगरों का जगत् सेठ कर दो।" पुरुष-नो माझा (जाता है)। चाणक्य-चंद्रगुप्त अब और मैं क्या तुम्हारा प्रिय करू १ .. .. राजा-इससे बढ़कर और क्या भला होगा? मैत्री राक्षस सो भई, मिल्यौ अकंटक राज । नंद नसे सब अब कहा यासों बदि सुखसाज ॥ चाणक्य- प्रतिहारी से ) विजये ! दुर्गपाल विजयपाज मे कहो कि "अमात्य राक्षस के मेल से प्रसन्न होकर महाराज चंद्रगुप्त आज्ञा करते हैं कि हाथी, घोड़ों को छोड़कर और सब बंधुओं का बंधन छोड़ दो” वा जब अमात्य राक्षस मंत्री हुए तब अब हाथी २३० घोड़ों का क्या सोच है ? इससे- छोड़ो सब गज तुरंग अब, कछु मत राखौ बॉधि। .. केवल हम बाँधत सिखा, निज परतिज्ञा साधि ॥ (शिखा बाँधता है) प्रतिहारी-जो आज्ञा (जाती है। चाणक्य-अमात्य राक्षस ! मैं इससे बदतर और कुछ भी भापका प्रिय कर सकता हूँ। राक्षस-इससे बढ़कर और हमारा क्या प्रिय होगा? पर . जो इतने पर भी संतोष न हो तो यह पार्शर्वाद सत्य हो- 'वाराहीमात्मयोनेस्तनुमतनुबलामास्थितस्यानुरूपा २४० यस्य प्राग्दन्तकोटिम्प्रलयपरिगता शिश्रिये भूतधात्री ॥ म्लेच्छरद्वज्यमाना भुषयुगमधुना पीवरं राजमतः स श्रीमद्वन्धुभृत्यश्चिरमवतुमहीम्पार्थिवश्चन्द्रगुप्तः॥ २४३ [सब जाते हैं। इति सप्तमांक म० ना०-७