पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१७५

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१०४ मुद्राराक्षस नाव १०-१३-मूल श्लोक- पास्याविर्भवन्तीमवनतिमवने रक्षतः स्वैरपातैः संकोचैनैव दोष्णां मुहुरभिनयतः सर्वलोकातिगानाम् । दृष्टिं लक्ष्येषु नाग्रज्वलनकणमचं बनतो दाहभीते. रित्याधारानुरोधात् त्रिपुरविजयिनः पातु वो दुःख नृत्तम् ॥ त्रिपुर-विजयी महादेवजी की इच्छा तांडव नृत्य करने की हुई तब उन्हें विचार हुआ कि यदि मैं नृत्य के समय स्वच्छौंदता से पैर पटकूँगा, हाथ चलाऊँगा और नेत्रों से देखू गा तो यह पृथ्वी दवकर पाताल को चली जायगी, चारों ओर के लोक टूट-फूट कर गिर जायंगे और आँखों की अग्नि से संसार जल जायगा । तब असुरों के तीन नगरों के नाश करनेवाले महादेवजी ने कष्टनृत्य करना निश्चित किया जिसका वर्णन कवि यों करता है कि 'पृथ्वी दब कर नीचे न जाय इसलिए उसके रक्षार्थ धीरे धीरे पैरों को चला कर, सब लोकों से भागे जानेवाले बाहुओं को भाव बतलाते समय संकुचित करके (जिसमें हाथ लगने से वे लोक नष्ट न हों) और नेत्र से अग्निज्वाला निकलकर भस्म न कर दे इस डर से किसी ओर न देखते हुए त्रिपुरविजयी भगवान् आधार के संकोच से जो कष्टनृत्य करते हैं वह हमारी रक्षा करे।' अनुवाद में मूल का सब भाव आ गया है पर इसकी प्रथम दो पंक्तियों में शिवजी ने संसार के रक्षार्थ क्या कष्ट उठाया था सो नहीं आया । मूल के त्रिपुरविजयी शब्द के अनुवाद में न आने से परि- करालंकार की कमी हो गई और साथ ही वह आवश्यक था। क्योंकि इस पद में दिखलाया गया है कि जिस प्रकार क्रोधित होने पर महा- देवजी ने त्रिपुर का नाश कर दिया था उसी प्रकार चाणक्य ने भी कोच में नवनडों का नाश कर दिया, पर शांति के समय जिस प्रकार महादेवजी सबके रक्षार्थ कष्ट नृत्य कर रहे हैं उसी प्रकार क्रोध शांत होने पर चंद्रगुप्त के राज्य को दृढ़ करने के लिए राक्षस को मिनाने है कष्टसाध्य कार्य को चाणक्य ने शांति से अपनी कूटनीति द्वारा अफल किया। प्रथम तीन पंक्तियों में अतिशयोक्ति न ।