पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१८१

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मुद्राराक्षस नाटक कुभ-हाथी के सिर के दोनों ओर ले उमड़े हुए भाग । सिंह के उन दाँतों से जो सदा हाथियों के मस्तकों को फाड़ते हैं। (जिससे वे रक्त लगने से लाल हो जाते हैं ) और नए चंद्र के समान लाल हैं तथा जंभाई लेते समय काल के सामान बढ़ जाते हैं। कौन निकाल सकता है ? यह कहकर चाणक्य चंद्रगुप्त को हानि पहुँचाने के प्रयास का दुस्साध्य होना प्रदर्शित करता है। नए चंद्र से चंद्रगुप्त की कलारूपी श्री का उन्नतिशीला होना प्रगट होता है। चंद्र का रंग शुभ्र ही माना गया है, पर यहाँ लाल लिया गया है। मूल में कवि ने इसीलिए सन्ध्यारुणाम् बढ़ाकर संध्या समय की लालिमा की सहायता से चंद्रकला को लाल बनाया है। जंभाई शब्द का प्रयोग कर चाणक्यों अपनी सावधानी को बतलाया है। भुजंगप्रयात् छद है और उपमा लंकार है, जिससे वस्तुध्वनि भी निकलती है। सिंहरूपी चाणक्य की साधिता मौर्यलक्ष्मी को राक्षस के ग्रहण करने की इच्छा ही को असाध्य होना दिखलाया है। इसमें रूपकातिशयोक्ति का ध्वनि है। .. १०-११-कालसर्पिणी-जिस सर्पिणी का दर्शन तत्काल मनुष्क को कालकवलित कर देता है। क्रोध-धूम-क्रोधरूपी अग्नि से उठती हुई धुएँ की शिखा। ... चाणक्य की शिखा न बाँधने की प्रतिज्ञा करने का इतिहास पूर्व कथा में दिया गया है। नंदवंश के लिये कालसर्पिणी और क्रध-धूम सी जो शिखा है, उसे अब भी कौन नहीं बाँधने देता ? मालारूपका- लङ्कार है। १२-१३-नंदवंश रूपी वन को सहज ही दहन कर देनेवाले मेरे प्रज्वलित प्रताप रूपी अग्नि का पतंग कौन पापी अब हुआ चाहता है १ अर्थात् जो कोई साहस भी करेगा, वह नष्ट हो जायगा। रूपकालङ्कार है। १७-इस कथन में व्यंग्य है अर्थात् अभी तक वैठने के लिए चटाई नहीं बिछी।