पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परिशिष्ट स. पैदा करना है, जिससे वे मलयकेतु को अंत में पकड़ कर उसके अभीष्ट को सिद्ध कर सकें । पूर्वोक्त विचारों से अनुवाद का मूल पाठ बदलना उचित था क्योंकि भद्रभटादि बड़े बड़े पद पर नियुक्त नहीं किए गए थे। वरन् वे चंद्रगुप्त के साथ ही उन्नतिपथ पर अग्रसर होते हुए वहाँ पहुँचे थे और प्रकाश्यरूप में विद्रोही बनकर मलयकेतु के यहाँ भाग गए थे। ३-अप्रमादी-जिनमें अहंकार के कारण बाहरी श्राडंवर दिखाने का शौक न हो। ८५-विष्णुशर्मा-यही क्षपणक नामधारी जैन सन्यासी चाणक्य का गुप्त भेदिया था। ६४-६५-इस दोहे का मूल यों है.- स्वयमाहृत्य भुजाना बलिनोऽपि स्वभावतः। गजेंद्राश्चनरेंद्राश्च प्रायः सौदंति दुःखितः ॥ ...: अर्थ हुआ कि स्वभाववश स्वयम् खाद्यवस्तु ( राज्य ) एकत्र करने में गजेन्द्र और नरेन्द्र दोनों को बलवान होने पर भी प्राय: कष्ट होता है । अनुवाद में गजेन्द्र के स्थान पर सिंहकुमार है। तात्पर्य यह है कि यदि तनिक भी चूके तो अपशय और हानि उठानी पड़ेगी इसलिए दूसरों के द्वारा जो कार्य होते हैं, उसी में सुख मिलता है । तुल्ययोगिता तथा अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है। ९८-९६-अन्वय-अति हेत किये उल्टे हूँ ते काज बनत है । जो जम सबको जी हरत सोई ( मुझे ) जीविका देत। दोनों दोहों से वस्तुध्वनि निकलती है । पहले से चाणक्य ही का भाश्रित रहना तथा दूसरे से उसी के आश्रितों का सुरक्षित रहना व्यजित होता है। इस दोहे की पहली पंक्ति में काव्यनिंग तथा दुसरी में व्याघात अलकार है। उस समय एक प्रकार के साधु जमपट दिखलाकर और जिससे संसार की अनस्थिरता प्रकट होती थी, वैसे गीत गाकर भीख माँगते'