पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१९०

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पाराशष्टख ३०८-भूल में चंदनदास से स्वगत कहलाया गया है कि 'यह अधिक श्रादर शंका उत्पन्न करता है। अनुवाद में यही था, इससे स्वागत शब्द बढ़ा दिया गया है। ___३११-३१२-चाणक्य वाक्य चातुरी से चंदनदास से चंद्रगुप्त के केवल दोषों को न पूछकर उसके वर्तमान होने के कारण पूर्व के राजाओं का याद आना और उनके गुणों का स्मरण होना पूछता है। ३२४.३२५-जिसमें तुम लोग किसी प्रकार के क्लेश न पड़ो! १२७-३२८--विरुद्ध कार्य करने से दंडित होने पर तुम्हें क्लेश होगा, इससे चंद्रगुप्त को प्रसन्न रखने के लिये स्वयं क्लेश में मत पड़ो। सौ बात की एक बात अर्थात् संक्षेप में, थोड़े में। .. ३३२-३१३-तिनका और अग्नि का विरोध-तिनके मे और अग्नि से चाहे मैत्री या वैमनस्य हो, पर दोनों दशा में संपर्क होते ही तिनके का नाश निश्चित है। चंदनदास ने अपने को तिनकास्वरूप और चंद्रगुप्त या चाणक्य को अग्नि के समान कहकर यह प्रकट किया कि आप लोगों से दूर रहने ही में हमारा कुशल है, मित्रता या वैमनस्य में नहीं। ३४३-गबड़े की बात अर्थात् वे बातें जो एक दूसरे को काटती हों। ३४५-छल का विचार-छल को अवसर नहीं मिलत', छत्व से काम नहीं चलता। ३५१-साँप सिर पर बूटी पहाड़ पर-जिस प्रकार सर्प सिर पर बैठा दंशन करना चाहता हो उस समय पहाड़ पर की दवा की आशा करना वृथा है, वैसे ही इस समय जब राज विरोधी रूपी दंड तुम [ चंदनवास] पर गिरा चाहता है, तब राक्षस आदि दूरवर्ती मित्रों की भाशा करना व्यर्थ है। जैसा चाणक्य ने नंद को....."चाणक्य का तात्पर्य है कि जिप प्रकार मैंने मंद को राजगद्दी से उतारा उस प्रकार चंद्रगुप्त को राक्षम गद्दी पर से उतारेगा यह आशा रखना ठीक नहीं है । संकोच के कारण कहते कहते रुक गया था कि बीच में चंदनदास उसकी