पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१९५

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१२४ मुद्राराक्ष । ३४-३५-जिस प्रकार जंगल में दो लड़ते हुए गजराजों के बीच । “पड़ी हुई हथिनी संशय और डर के साथ इधर उधर धक्का खाती । उसी प्रकार दोनों विरोधी मंत्रियों के बीच में विचलित होकर राज्य भी खींचातानी में पड़ी धक्के खा रही है। इसमें भी रूपक और उत्प्रेक्षा है। लिखा जा चुका है कि यह और प्राप्त्याशा-पताका समसन्धि से आरंभ होता है। पायापाय शका प्राप्त्याशा कार्य सम्भव:' लक्षण है। चाणक्य की बुद्धिरूपी जो उपाय है, राक्षस कृत आकर्षण अपाय है और राज्यश्री का स्थै शंका है इसलिये प्राप्त्याशा हुई । विराधगुप्त और राक्षस का को कथन पताका है और इन्हीं दोनों का संबन्ध गर्भसंधि है। ३६-उपर देखकर-चिन्ता या स्मरण करने में ऊपर देखा स्वाभाविक है। ४१-४४-जिस प्रकार यदुवंशी अपने गुण नीति अादि से शत्रु पर विजयी हुए पर ब्रह्मा की निठुरता से अर्थात् बाँए होने से उनक नाश हो गया उसी प्रकार नन्दवंश भी नष्ट हो गया। इसी चिंता ज्याकुल होकर मुझे नित्य प्रति दिन रात जागते ही बीतता है। मैं भाग्य के इन विचित्र चित्रों को देखो जो किसी आधार पर ना बनाए गए हैं अर्थात् मेरे वे अनेक निष्फल उपाय जो मैं चंद्रगु को नाश करने के लिए दिन रात गदा करता हूँ या जिनकी कल्पना किया करता हूँ। नंदकुल रूपी आधार के न रहने से राक्षासकी नीति-कौशल-रूपी चित्र-लेखन व्यर्थ है। __ यदुकुल का नाश उस वंश के युवकों के उद्धवपन और ऋषियों शाप से हुआ था तथा नंदवंश का नाश भी उद्धतपन और बाल ' द्वारा हुभा था इसलिए इस उपमा का इस स्थान पर उचित प्रयोग है उपमालंकार और विशेषालंकार है। ४६.४९-स्वामि-भक्ति को याद कर निस्वार्थ बुद्धि से और प्रार भय तथा प्रतिष्ठा पाने की भाशा छोड़कर अंब लक जो कुछ कि तथा मायकेतु का दासत नित्य कर रहे हैं वह केवल इसी विका