पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२०४

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परिशिष्ट ख १३३ राक्षस यह मानों अपने लिए कहता है पर वह उन लोगों पर घटता है जो वस्तुतः प्राण के भय से अपने स्वामी के किसी काम न पावें क्योंकि राक्षस तो स्वयं स्वामी के उपकार को न भूलकर इसी के कार्य में लगा हुआ है इसलिए वह कृतन्न नहीं हो सकता। विराधगुम ने इसी दोहे को दुहराकर यही व्यक्ति किया है। इस कारण इसमें बिना प्रश्न का परिसंख्यालकार है और स्वामी का अनुगमन न काने से कृतन्न होना दिखलाने में काव्यलिंग अलंकार हुआ। दोनों अलंकारों के होने से संसृष्टि हुई। ३५६-राक्षस जानता था कि चदनदास के कारारुद्ध होने का क्या फल होगा इसी से वह अपने को बाँधा हुमा मानता है। ३६२-राक्षस ने सेवक के सामने भूल से गुप्तचर का नाम ले. शिया प्रसन्नता के वेग में उसे वह छिग न सका। चाणक्य कभी ऐसा न करता। ३७०.३७७-दृढ़ता से चंद्रगुप्त के न्यायदंड रूपी सूनी को गड़ा हुआ देखकर शकटदास का राज्य का स्थैर्य भासिम हुआ, फांसी देने की डोरी के गले में पड़ने से उन्हें ज्ञात हुआ कि राज्यश्री इसी प्रकार चंद्रगुप्त के गले की हार हो गई और नंद राज्य का अंत होना घोषित करती हुई डौंडी को भी इन कानों से सुना पर इतने पर भी उसका प्राण शरीर से क्यों नहीं निकला इसका कारण नहीं बात हुश्रा। ___ अनुवाद की पं० ३७५ का मूल यों है "श्रुत्वा स्वाम्युपरोधरौद्रविष- मानावानतूर्य स्वनान्" अर्थात् स्वामी के राज्यनाश का भीषण तु नाद पुनकर मल में प्राण न निकलने का कारण पहले प्राधातों से (नंदनाश) हृदय का कठिन हो जाना' आ जाने से काव्य लिंग मलंकार बढ़ गया है। इसमें उपमालंकार है। मौर्य के राज्यस्थैर्य की सूली से तथा राज्य-क्ष्मा को फोंस की डोरी से अयोग्य उसमा देने से वस्तु ध्वनि होती है।