पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२०६

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परिशिष्ट ख २८-३१--जो दूसरे के कार्य में लगा है वह अपना स्वार्थ बगाड़ता है और जो अपना कार्य स्वयं नहीं करता, वह किस बात कि राजा है। जिससे दूसरों ही को लाभ पहुँचता है, वह पराधीन और मूढ़ है तथा उस कूढ़ मस्तिष्क वाले को कठपुतली के समान कुछ भी स्वाद नहीं मिलता। इन दोहों से चंद्रगुप्त का स्वार्थलोलुप होन्म दिखलाया गया है, ' पर उसके यौवन और नया राज्य पाने का विचार करने से यह दोष ३२-राज्य पावर-मूला में 'श्रात्मवद्भिः राजभिः' अर्थात् जितें- द्रिय राजाओं के लिए है. जिसके स्थान पर 'राज्य पाकर' दिया गया है। ३४-३७-मूल श्लोक का अर्थ यों है- उम्र स्वभाव वाले से उद्विग्न हो जाती है और मृदु स्वभाव वालों के पास अपमानित होने के डर से नहीं ठहरती, मूर्ख से द्वेष करती है और अत्यंत विद्वान् से अनुराग नहीं करती, तथा अति शूर से डरती है और कायर का उपहास करती है इस प्रकार अत्यादर प्राप्त वीरांगना के समान राज्यलक्ष्मी को परितुष्ट करना , अत्यंत कष्टकर है। अनुवाद का अर्थ भी लिखा जाता है- सहज ही चंचल स्वभाववाली लक्ष्मी स्वामी को सदा कूर कहती है। वह मनुष्य के गुण अवगुण ( विद्वत्ता, मूर्खता ) को नहीं देखती। सजन और खल (मृदु या दुष्ट स्वभाव वालों) को बराबर समझती है, शूर से डरती है और कायर को कुछ नहीं गिनती। बतलाश्रो कि वेश्या और लक्ष्मी को किसने वश में किया है ? ___ मल अर्थ सष्ट हो जाता है। प्रस्तुत लक्ष्मी और अप्रस्तुन वेश्या के क्रिया संबंध तथा अनेक क्रियाओं का एक ही का होने से प्रथम तीन पंक्तियों में दीपकालंकार है और मूल को चौथी में उपमा का प्रमावेश हो गया है।