पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२१३

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१४४ . मुराराक्षस शरद ऋतु ने महादेवजी के समान भस्म के स्थान पर काम में फूलों का मानो अंगराग धारण किया है, चंद्रमा महादेवजी के मस्तक पैर और शरद की चाँदनी आकाश में शोभायमान है, महादेवजी गजखाल ओढ़े हुए हैं तो शरद ऋतु ने आकाश में चमकता हुआ मेघ-हंड धारण कर लिया है, मुडमाला के स्थान पर शरद ऋतु के शुभ्र फूल फूले हुए हैं और राजहंमों की पंक्ति मानों महादेवजी का हात्य है। ऐसी शरद ऋतु जिस महादेवजी का स्वाँग धारण कर आई है । वे आप लोगों का कष्ट हरें)। - कोष्ठक के भीतर का अंश अनुवाद में नहीं आया है, पर मूल में है। इस पद में रूपकालंकार है। २११-२१७-"शेत विष्णुः सदाऽऽषाढ़े कार्तिके च विबुध्यते" चार मास सोने पर शरद के अंत में कार्तिक शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु की निद्रा भंग होती है । उसीका विचार कर नाटक- कार ने यह पद शरद वर्णन के अनंतर रखा है। विष्णु भगवान के नेत्र तुम्हारी बाधा का हरण करें। शरद का अंत होता देखकर जब शेषनाग के वक्षस्थल पर सोते हुए जगत- पिता की निद्रा खुली, तब उनके अधखुने, अल पार और कटीले नेत्र ऐसे शोभित हुए जैसे लाल रंग के कमल [या कमल के समान लाल ] यद्यपि नेत्र ऐसे बाल है पर मदमाते होते से वे इस प्रकार स्थिर हो रहे हैं कि शेष जी की महत्र मणियों की चमक से चकचौधी लगने पर भी वे अच्छी तरह बंद नहीं हो जाते । निद्रा से भरे हुए और बहुत प्रयत्न पर जगे हुए वे नेत्र जो लक्ष्मी जी के हृदय में नित्य ही चुमते रहते हैं, आप लोगों की वाधाओं का निवारण कर। .. ' स्वाभावोक्ति अलंकार है और उपमा का भी समावेश है। मूल से अनुवाद में कुछ विशेष बातें आ गई हैं। ____२१६-१२२-ब्रह्मा ने जिन पुरुषों को संसार का श्रेष्ठतम कार्य दिया है (अर्थात् राजा बनाया है ) वे उन सिंहों के समान हैं, जो सर्वदा बड़े बड़े मस्त हाथियों पर विजय प्राप्त करते रहते हैं और