पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४८ मुद्राराक्षस नाट अर्थात् इसी से अब चाणक्य पर विश्वास नहीं होता। चरित्रोत्कर्षक वर्णन से उदात्त और सिर पर लात रखने के संबंध से अतिशयोक्ति अलंकार हुए। ३७७-८-कहने का भाव या व्यग्य यह है कि जिसकी प्रशंसा चंद्रगुप्त ने की थी यह उसके शत्र मलयकेतु के पक्ष में था इसलिए ऐसा प्रशंसनीय व्यक्ति अंत में विजय प्राप्त कर मलयकेतु को चंद्रगुप्त के स्थान पर सम्राट बना देगा। जिस प्रकार चाणक्य ने नंदनाश कर चंद्रगुप्त को राजा बनाया, उसी प्रकार राक्षस चंद्रगुप्त का नाश कर मलयकेतु को राजा बनावेगा। ३८०-मूल में 'मत्सरिन्' शब्द है जिसका अर्थ है दूसरों के उत्कर्ष को न सहनेवाला अर्थात् द्वेषो। पर अनुवाद का कृतन शब्द इस स्थान पर अधिक उपयुक्त है। ३८१-४-मूल के दो स्रग्धरावृत्त के श्लोकों का भाव इन दो दोहों में लाया गया है, जिससे उपमादि के कुछ अंश छूट गए हैं। इसलिए पहले मूल श्लोकों का अर्थ दिया जाता है:- क्रोध के कारण टेढ़ी हुई उँगलियों से शिखा को खोलकर संसार के सामने समस्त शत्रवंश के नाश करने की भारी तथा उग्र प्रतिज्ञा करके राक्षस के देखते हुए निन्नानबे सौ कोटि के ईश्वर [ महा ऐश्वर्यशाली ] नंदों को पशु के समान क्रम से किस दूसरे ने मारा.था? . भाकाश में मंडल वाँधकर उड़ते हुए तथा निश्चल पंख फैलाए हुए गिद्धों के झुड-रूप धूए से रविमंडल के छिप जाने से दिशाएँ बादलों से आच्छादित दिखला रही हैं एवं इन स्मशानवासी प्राणियों [पशु-प्रेत आदि ] के प्रसन्नार्थ नंदों की देह से निकले हुए मेद आदि से प्लावित चितानल अभी तक शांत नहीं होता। उसे देखो। पहले श्लोक के अनुवाद दोहे में क्रोध से उंगलियों का टेढ़ा होना तथा पशु की उपमा नहीं आई है । पर तीसरी कमी अधिक