पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२२७

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१५६ २७-१-वैद्य और गुरु का समान धर्म होना दिखलाया है वैद्य की दवा और गुरु का उपदेश पहले कडुआ मालूम होता है पर अंत में दोनों का फल अच्छा होता है। अप्रस्तुत वैद्य की आज्ञा पालन भावश्यक दिखलाकर प्रस्तुत विज उपदेश को मानना प्रावश्यक बतलाने से अप्रस्तुत प्रशसा अलंकार है। . २८३-६-मूल में 'प्रामध्याह्नात् निवृत्त सप्तशकला' है, जिसका अर्थ हुआ कि दोपहर तक भद्रा छूट जाएगी। शुक्ले पूर्वार्द्धऽष्टमी श्वदश्यो:भद्रा' के अनुसार अर्द्धरात्रि तक पूर्णिमा थी । पूर्णिमा को पूर्ण चद्रबिंब रहता ही है पर चंद्र का नाम लेखकर यह दिखलाया है कि चंद्रगुप्त का इस समय प्रभाव पूर्ण रूप से व्याप्त है। दक्षिण .' की यात्रा में 'पक्षान्ते निष्फला यात्रा मासान्ते मरणं ध्रुवम्' वचन से पूर्णिमा अमंगल है तथा उत्तर से दक्षिण अर्थात् यम की दिशा हो जाना है। 5. मूल में 'दक्षिण द्वारिक नक्षत्र' है जी मघादि सात नक्षत्रों का घोतक है और यात्रा में अमंगल है।

अश्विन की पूर्णिमा को कौमुदी महोत्सव का निषेध हुआ था।

ब से आरम्भ होकर यह भेदनीति (दोनों चाणक्य और राक्षस i) दो महीने में पूर्ण हुई। इस प्रकार अगहन की पूर्णिमा को राक्षस ने कुसुमपुर की यात्रा के लिए साइत पूछा था। २८७-८-सूर्य के अस्त होने और चंद्र के उदय होने के समय मना अच्छा है, (सौम्य ग्रह) बुध के लग्न में (अर्थात् मिथुन या न्या सम में कर ग्रह राहु या ) केतु के पड़ने से कोई हानि नहीं योंकि वह अस्त है (सप्तम स्थान में पड़ा है)। बुध का लग्न ( कन्या ) फाल्गुन की पूर्णिमा को और ( मिथुन) गिहन की पूर्णिमा को पड़ता है। पहले को पाँच महीने हो जाते । लग्न में पड़ने से केतु उदित होने पर भी सप्तम स्थान में स्थित नि से अस्त है । अर्द्धचंद्र पापग्रह होता है, इसलिए मूल में पूर्ण