पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२३७

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परिशिष्ट ख . चौपाई और दोहे में युक्ति के साथ सिद्ध करने के कारण काव्य- लिंग अलंकार हुमा। २७७-८०-चिंतामन मनय केतु की अवस्था का वर्णन है- यद्यपि उसकी स्थिर दृष्टि चरण की ओर है पर चित्त के चिंतित होने से वह उसे नहीं देखता है। हाथ पर अपना सिर रख कर राजा इस प्रकार झका है, मानों भारी कार्यभार से सिर नीचा हो गया है। अनुवाद में मूल का वक्त्रंदु शब्द नहीं भाया । इसमें मलय केतु. के लिए अवनीश अर्थात् राजा शब्द आया है। पर मूल नाटककार ने केवल कुमार शब्द ही का प्रयोग किया है । कुल नाटक में उसके लिए कहीं राजा या उसके पर्याय नहीं भाए हैं। अनुवाद में कुछ राब्द भी अधिक हैं। दूसरे दोहे में उत्प्रेक्षा है। २१४-नाटककार मलयकेतु द्वारा स्वगत बातें और आर्य शब्द प्राथ ही कहलाकर उसकी सहनशीलता दिखलाता है। ३०२-४-राक्षस के मुख पर इस प्रकार झूठ बोलना धूर्तता का मांत है। ___३३८-मूल के अनुसार 'अभी क्या और मार खाओगे, सच कहो।' चाहिए। __३४१-इस पंक्ति के बाद मूल में प्रतिहारी का कथन है कि 'जैसी प्राज्ञा'। ३४४-सिद्धार्थक द्वारा लिखाए जाने का वृत्तांत । देखिए अंक पं० २३४-२४४। ___३५८-६-स्त्री-पुत्र की याद में स्वामिभक्ति भूल जाता है और श्वर धन के लोभ में निश्चय यश को छोड़ देते हैं। भाव यह है कि चाणक्य की अनुमति से शकटदास ने यह पत्र त्र-स्त्री के स्मरण ही से स्वामिभक्ति छोड़ कर लिखा है। परि- ख्यालकार है।