पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२४४

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१८२ मुद्राराक्षस नाटक अनुवाद में समररूपी कसौटी का रूपक छूट गया है और तलवार की हाथ के साथ तत्सामयिक मित्रता को स्थिरता दो. ___ मूल संस्कृत के इस अंश विगत जलदव्योम' का दूसरा पाठ 'सजलजलदव्योम' है। अनुवाद में पहला लिया गया है। दूसरे का मर्थ हुआ कि जलयुक्त बादलों सहित आकाश । इससे बलवार के मावदार होने की ध्वनि निकलती है। हिंदी अनुवाद में बादल के समान उपमा और तन पुनकित होना उत्प्रेक्षा है २५८-संस्कृत मुद्राराक्षस की अन्य प्रतियों में पं० २६१-६२ इसी के बाद हैं और उम्र के अनंतर निम्नलिखित अधिक है- पुरुष-हमारा संदेह दूर करके हमें अनुगृहीत कीजिए। .. २५६-भर्तृ कुल-स्वामी अर्थात् नंद का वंश । - २६७-७६-राक्षस को निरस्त करने की यह नीति मात्र थी। यह चाणक्य का भेजा हुआ और उसी का सिखलाया हुआ पर था। (देखो इसी अंक की पं० १५१) । २:६-८०-मूल श्लोक का भावार्थ- यदि शकट दास शत्रु के इच्छानुसार हमारे पास लाया गया तो क्रोध के आवेश में घातकों का यह मारा जाना कैसा ? और यदि ऐसा नहीं हुआ तो यह कुत्सित कार्य (पत्र लिखना, मोहर करना गदि ) कैसा ? इस प्रकार मेरी व्याकुल बुद्धि कुछ निश्चित नहीं. कर सकती। . अनुवाद के दोहे में श्लोक का भाव पूर्णतया भा गया है केवल

प्रकटीकरण में यही भिन्नता है कि मूल के 'यह कुत्सित कार्य कैसा ?

के स्थान पर 'जाल भयो का खेल में है। भाव यह है कि यदि शष्टदास वस्तुतः शत्रु से मिला नहीं है और वह सत्य ही भाग कर पाया था वो वह पत्र-लेखन आदि कुकर्म कैसे कर सकता है ? इसमें जान ही हो सकता है।