पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२५३

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के वह कर्तव्य न पालन कर हम स्वयं अपने मित्र का घात कैसे गे अथोत अस्त्र-ग्रहण न करने से वह मारा ही जायगा।

प्रथम पंक्ति में स्वामिभक्ति तथा स्वामी के शत्रु का दासत्व साथ

होने से विषमालंकार है । दूसरी पंक्ति में मलयकेतु आदि वृक्षों ने स्वयं बढ़ाकर काटना परंपरित रूपकालंकार है तथा अप्रस्तुत र से प्रस्तुत अपने पक्ष के संबंध से भप्रस्तुत-प्रशसा अलंकार 'मा। अतिम पंक्ति में सामान्य कथन से प्रथम तीन पंक्ति की विशेष गों के समर्थन से अर्थातरन्यास अलंकार हुआ। १६५-६-नमस्सर्व... स्नेहाय-मित्र प्रेम को, जो सब कार्यों करने का कारण है, नमस्कार करता हूँ। . २२५.६-अर्थ स्पष्ट है। उपयुक्त प्रशसा से सम नामक अलंकार २३२-१-अर्थ स्पष्ट है । बाँधने और न बाँधने के परस्पर विरुद्ध.. में से विषमालकार है। २४०-३-अन्वय-अतनुबला वाराही तनुम् आस्थिवाय यस्य त्मयोनेः अनुरूपां प्रलयपरिगता भूतधात्री दंतकोटिं प्राक् शिश्रिये बुन म्लेच्छः उद्वेज्यमाना राजमूत्तः ( यस्यः) पीवरं भुजयुगं पश्रिये ) श्रीमद्वंधुभृत्यः पार्थिवः चन्द्रगुप्तः महीं चिरम्-अवतु। भावार्थ-महाबली वाराह-शरीर धारी स्वयंभू विष्णु जिनके दान पर प्रलय में निममा पृथिवी ठहरी हुई थी और इस समय च्छों द्वारा उत्पीड़ित होकर जिन राजमूर्ति के दोनों हद भुजाओं माश्रय पर है वे वैभवशाली राजा चंद्रगुप्त अपने बंधु तथा . गों के साथ बहुत दिनों तक पृथ्वी की रक्षा करें। पुराणों में कथा है कि प्रलयजलमग्ना पृथ्वी को विष्णु भगवान राह अवतार धारण कर बाहर निकाला था। विष्णु-पुराण के सार राजा विष्णु भगवान के अवतार सममे जाते हैं, 'ना विष्णुः जीपति आदि, मध्य और अंत में मंगनविधान होना चाहिए । भारंभ में चरणं है, मध्य में शरद-वर्णन के अवसर पर शभु तथा .