पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/३९

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मतावलम्बी होने पर तथा उसे देखना अशकुन मानने पर भी चाणक्य और राक्षस ने उसे अपना अंतरंग मित्र बनाया था। साथ ही वह जैसे कुकाय में लगाया गया था उससे ज्ञात होता है कि धार्मिक कट्टरपन के कम हो जाने पर भी द्वष का नाश नहीं हो गया था। ५-त्रोफेसर विलसन को खडनात्मक आलोचना करने पर विद्वदर पं. तैग ने अन्य कारणों से समय निकालने का भी प्रयत्न किया है। पहले दशरूप और सरस्वती कंठाभरण में मुद्रारक्षस से उद्धत अशों पर विचार किया गया है। दशरूप में मुद्राराक्षस का तीन बार- उल्लेख है। पहले में इससे पूरा एक अंश उदाहरण के लिए लिया गया है, दूसरे स्थान पर हितोपदेश के सुहृदभेद का ११३ वा श्लोक भी मुद्राराक्षस से उद्धत है। वह श्लोक यो है- अत्युच्छिवे मंत्रिीण पार्थिवे च विष्टभ्य पादावपतिष्ठते श्रीः। सा स्त्री स्वभावादसहा भरस्य तयोद्व योरेकतरं जहात ॥ फारस के न्यायो नौशेरवाँ ने, जो सं०६८८-७१२ तक बादशाह था, पहलवा भाषा में एक पुस्तक का अनुवाद कराया था जिसे 'कर्तक और दमनक' कहते थे। पहलवी से अरबी में उसका अनुवाद द्वितीय खलीफा के समय में हुआ और ५१५ हि. में उससे फारसी में अनुवाद हुआ जो 'कलील: दमन: या अनवारे सुहेली' कहलाता है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह पंचतत्र का और कुछ विद्वानों का मत है कि यह हितोपदेश का अनुवाद है , हितोपदेश का एक आधार पंचतंत्र भी है। दशरूपक में एक श्लाक मुद्राराक्षस से उद्धत है, जिसे भत हरिशतक से लिया गया लिखा गया है । वह श्लोक यों है- प्रारम्यते न खलु विघ्नभयेन नीचै., प्रारभ्यविघ्नविता विरमंतिमध्याः। विघ्नः पुना पुनर्सप प्रतिहन्यमानाः, प्रारब्धमुत्तमगुणास्त्वमिवाद्वहन्ति । पर नीति शतक में अतिम पद 'प्रारब्धमुत्तमगुणा न परित्यजति' है और त्वमि- बोदवहति' मद्राराक्षस का पाठ है, जो उसके लिए उपयुक्त है क्योंकि विराधगुप्त राक्षस को प्रयत्न करते रहने के लिए उत्तेजना दे रहा है।